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________________ * षोडश सर्ग # [ २०६ केचिद् दो: कुड्मलीकृत्य नेमुस्तं तीर्थेनायकम् । साश्चर्य हृदयाः केचित्पश्यन्ति स्म निरन्तरम् |८०| इत्यादिस्तदेवः श्लाध्यमानः पुरीजनैः । वन्द्यमानो मुहुर्मू न पुरोपान्तं व्यतोयिवान् ॥८१॥ श्रथ संप्रस्थिते पुत्रे जिनाम्बा तच्छुखा हता । बन्धुभिश्च वृतामात्यैः स्वसूनुमनुनिर्ययौ ॥ ८२ ॥ कियांग महादायदाघवल्लीविभास | । गतशोभा विशोकार्ता रोदनं सेति संव्यधात् ॥ ८३ ॥ हा पुत्र कोमलाङ्गस्त्वं बालो घोरपरीषहान् । वर्षातापतुषारादीन् कथं ससि भीतिदाम् ||८४ अरण्ये निर्जने भीमे श्मशाने वा भयङ्करे । कथं वससि चकाकी व्याघ्रादिपचुरे सुत ||६|| कथं जयसि हारीन्मदुदरस्थ खदुर्जेयान् । उपसर्गाग्निसंपातान् कषायमदनादि च ॥ १८६॥ FE गतोऽस्यधुना वत्स मां विहाय श्रिया समम् । वत्र पश्यामि पुनस्त्वां सुमुक्ति श्री रञ्जिताशयम् ८७ हाँ नन्दन क्षणं सोढुं त्वद्वियोगं क्षमा न हि । यावज्जीवं विनातस्त्वां कथं प्राणान्धराम्यहम् । प्रलपमाना सा व्रजन्तो जितमातृका । प्रस्खलत्पदविन्यापै बन्धुभिः सह शोकिभिः ।। ८६ ।। इति को जीतने के लिये समर्थ हैं ।।७७-७६ ।। कोई हाथ जोड़कर उन तीर्थंकर को नमस्कार कर रहे थे और कोई श्राश्चर्यपूर्ण हृदय होकर उनकी प्रोर निरन्तर देख रहे थे ||८०|| नगर निवासी लोग इत्यादि स्तवनों से जिनकी प्रशंसा कर रहे हैं और मस्तक झुका कर जिन्हें बार बार नमस्कार कर रहे हैं ऐसे पाश्यं जिनेन्द्र ने नगर के समीपवर्ती प्रदेश को व्यतीत किया ||१|| पुत्र प्रथानन्तर पुत्र के प्रस्थान कर चुकने पर उसके शोक से पीडित और बन्धुजनों तथा मन्त्रियों से घिरी हुई जिनमाता अपने पुत्र के पीछे-पीछे जा रही थी ||६२|| जो वास्तव के योगरूपी महादावानल से जली हुई लता के समान थी, जिसकी शोभा नष्ट हो गयी थी और जो शोक से दुखी थी ऐसी वह माता इस प्रकार रोदन कर रही थी ||३|| हाय पुत्र ! तुम कोमल शरीर के धारक बालक हो, अतः वर्षा, घाम तथा तुषार आदि के भयदायक घोर परिषहों को कैसे सहन करोगे ? ॥६४॥ हाय पुत्र ! तुम व्याघ्रादि से परिपूर्ण, भयदायक निर्जन वन अथवा भयंकर श्मशान में प्रकेले कैसे निवास करोगे ? ॥८५॥ हाय मेरे पुत्र ! तुम इन्द्रियरूपी दुर्जेय शत्रुओं को, उपसर्ग, अग्नि, तथा घोर वृष्टि को और कषाय एवं काम को कैसे जीतोगे ? ||८६ ॥ वत्स ! लक्ष्मी के साथ २ मुझे छोड़कर इस समय कहाँ चला गया है ? मुक्तिरूपी लक्ष्मी ने जिसके वित्त को अनुरक्त कर लिया है ऐसे तुझे फिर कहां देखूं ? ॥८७॥ हाय पुत्र ! मैं तेरा वियोग क्षणभर भी सहन करने के लिये समर्थ नहीं है फिर जीवन पर्यन्त तेरे बिना कैसे प्रारूप धारण करूंगी? ।। ८८ ।। इस प्रकार प्रलाप करती हुई वह जिनमाता शोकयुक्त बन्धुजनों के साथ गिरते १. व्यतीपवान् स्व० ०० २. पुत्रवियोग
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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