SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१. ] * श्री पानाप चरित . मनोहरगिरागरम प्रोक्तेति तन्महत्तरैः । हे मातः किन जानाति वृत्तमस्य जगत्पतेः ।।६०॥ अयं ज्ञानत्रयीनाथः पुत्रस्ते धीमतो गुरु । 'पूर्व स्वमुद्धरित्वानु सद्भठ्यानुरिष्यति ।।१।। प्रकाश्म मुक्तिपन्यानं केवलज्ञानरश्मिभिः । हत्वा कर्मारिसन्तानं मोक्षं यास्यति निश्चितम् ।।२ पाशवदो यथा सिंहो नै तिष्ठति कदाचन । तथा पुरुषांसहस्से मोहपाशावृत: सुप्तः 163|| प्रयं त्रिवगतीभर्ता विश्वं पातु भमो महान् । हन्तुकर्माक्षसन्यं च कथं गेहे च तिष्ठति ॥li प्रतो देवि न कर्तव्यः शोको दुःकर्मकारणः । न किञ्चिच्छाश्वतं लोके मरवेति धर्मनाशकृत।।५। पतो मूर्मा हिशोबन्ति स्वजनं कर्मभोगिनम् । नात्मानं यमदंष्ट्रान्तःस्पिस बुद्धिविपर्ययात् ।।६६॥ पाठा इष्टवियोगेन घोकं कुर्वन्त्यधार्णवम् । बुधाः संगतो धर्म तपश्चानिष्टघातकम् ।।१७।। विजायेति दुतं देवि शोकं हत्वाधुनाशुभम् । कुरु धर्म गृहं गत्वा शुभध्यानेन सिद्धये ।।१८। इत्यादितपश्चन्द्रांशुभिः शोकतमोऽन्तरे। हत्या देवो ययौ गेहं धृत्वा धर्मे मनो निजम् ।।६।। पड़ते परों से जा रही थी ॥६॥ उसी समय घर के वृद्धजनों ने आकर मनोहर वाणी द्वारा उससे कहा--हे मातः ! क्या तुम इन जगत्पति का वृतान्त नहीं जानती ? ॥६॥ तुम्हारा यह पुत्र तीन शाम का स्वामी तथा बुद्धिमानों का गुरु है । यह पहले अपना उद्धार कर पश्चात भव्यजीवों का उद्धार करेगा ॥४१॥ यह केवल ज्ञानरूप किरणों के द्वारा मोक्षमार्ग को प्रकाशित कर तथा कर्मरूप शत्रुनों की सन्तति को नष्ट कर नियम से मोक्ष मार्ग को प्राप्त होगा ।।२। जिस प्रकार पाराबद्ध सिंह कभी नहीं ठहरता उसी प्रकार तुम्हारा पुत्र यह श्रेष्ठ पुरुष मोहपाश से प्रावृत होकर कभी नहीं ठहर सकता ।।१३।। यह त्रिलोकीनाथ समस्त संसार की रक्षा करने तथा कर्म और इन्द्रियरूपो सेना को नष्ट करने में समर्थ है अतः घर में कैसे रह सकते हैं ? ॥१४॥ इसलिये हे देवि ! लोक में कुछ भी शाश्वत स्थायी नहीं है ऐसा मानकर दुष्कर्मों का कारण तथा धर्म का नाश करने वाला शोक नहीं करना चाहिये ॥६५॥ क्योंकि मूर्खजन कर्मका फल भोगने वाले प्रात्मीयजन के प्रति शोक करते हैं किन्तु बुद्धि की विपरीतता से पमराज की दाढ़ों के बीच स्थित अपने अापके प्रति शोक नहीं करते ॥६६॥ मूर्खजन इष्टवियोग से पाप का सागरस्वरूप शोक करते हैं और ज्ञानीजन संवेग से अनिष्ट को नष्ट करने वाला धर्म तथा तप करते हैं ।१७। ऐसा जान कर हे देवि ! इस समय अशुभ शोक को शीघ्र ही नष्ट करो और घर जाकर सिद्धि के लिये शुभध्यान से धर्म करो ॥८॥ वृद्धजनों के इन वचनरूपी चन्द्रमा की किरणों से हृदय में विद्यमान शोकरूपी अन्धकार को नष्ट कर तथा धर्म में अपना मन लगाकर जिनमाता घर चली गयी ।MEn १. [पूर्वमारमान मुद्धृत्य ] इति पाठः सुष्ठ भाति ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy