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________________ •वाविंशतितम सर्ग . [ २६३ सर्वज्ञः सर्वक सार्वः सुसौम्यात्मा जिनाग्रणो: । मन्त्रमूतिर्महादेवो देवदेवोऽतिनिमसः ।।५८॥ कृतकृत्योऽतिनिर्दोषः परब्रह्मा महागुणी । दिव्यदेहो महारूपो नित्यो मृत्युञ्जयः कृती । ५६ ।। यमी यतीश्वरः स्रष्टा स्तुत्य : पूतोऽमराचितः । विद्य शो निःकियो धर्मी जातरूपो विदांवरः ॥६०। एतेषामपि मध्ये यो नाम्न केन विभो तब । करोति स्तवनं सोऽपि लभते त्रिजगच्छ्यिम् ।।६१।। समस्तै मभिर्यस्त्वा साथैः स्तौति जिनाधिपः । सदृष्टि : सोऽचिराद कि न जायते भवता समः । ६२ प्रतो देव नमस्तुभ्यं नमस्ते ज्ञानमूतये । जगद्धिताय तीर्थेश नमस्तेऽनन्त शर्मरणे ।।६।। होने से तीर्थकर्ता हैं ७२. विचार के ज्ञाता होने से विचारत हैं ७३. भेव विज्ञानी होने से विवेकी हैं ७४. शील ही प्रापका भाग है पानः गोलाण हैं ७५. अनन्त महिमा से सहित हैं प्रतः अनन्तमहिमा हैं ७६. कुशल अथवा समर्थ होने से दक्ष है ७७. प्राभूषणों से रहित हैं अतः निमूष है ७८. प्रायुध-शस्त्रों से रहित हैं अतः विगतायुध हैं ७६. सबको जानने से सर्वश हैं ८०. सर्वदर्शी होने से सर्वहक हैं ८१. सबका हितकरने वाले हैं इसलिये सार्य है २. प्रापको प्रात्मा अत्यन्त सौम्य है इसलिये सुसौम्यात्मा हैं ८३. जिनों में अग्रणी हैं प्रतः जिनानणी कहलाते हैं ८४. मन्त्रों की मूर्तिरूप होने से मंत्रमूति कहलाते हैं ८५. सब देवों में महान श्रेष्ठ हैं प्रतः महादेव कहे जाते हैं ८६. देवों के देव होने से देवदेव हैं ८७. अत्यन्त स्वच्छ हृदम होने से प्रतिनिर्मल हैं ८८. आप सब कार्य कर चुके हैं प्रतः कृतकृत्य कहलाते हैं ८६. दोषों से सर्वथा रहित होने से प्रतिनिर्दोष है .. परब्रह्मरूप होने से परब्रह्मा है ६१. महान गुणों से सहित होने के कारस महागुणी हैं ६२. दिव्य-परमौदारिक शरीर से सहित होने के कारण दिव्यदेह हैं ६३. महान रूपवान होने से महारूप है ६४. स्वभावदृष्टि की अपेक्षा कभी नष्ट न होने से नित्य हैं ६५. मृत्यु को जीत लिया है इसलिये मृत्युञ्जय कहलाते हैं ६६. सब कार्य कर चुके है प्रतः कृती है ९७. यम-सयम से सहित है इसलिये यमी कहलाते हैं ९८. पतियों-मुनियों के स्वामी है प्रतः पतोश्वर है ९६. सृष्टि-षट्कर्मरूप सृष्टि के उपदेष्टा होने से स्रष्टा हैं १००. स्तुति के योग्य होने से स्तुत्य हैं १०१. पवित्र होने से पूत हैं १०२. देवों के द्वारा पूजित होने से अमराचित है १०३. समस्त विद्यानों के स्वामी है अतः विद्येश कहलाते हैं १०४. क्रिया से रहित हैं इसलिये निःक्रिय है १०५. धर्म से सहित हैं प्रतः धर्मों हैं १०६. सद्योजात बालक के समान निर्विकार रूप को धारण करने वाले हैं प्रतः जातरूप है १०७. और ज्ञानियों में श्रेष्ठ है प्रतः विदांवर हे १०८ । हे विभो! इन नामों के मध्य में एक नाम से भी जो प्रापकी स्तुति करता है वह तीन जगत को लक्ष्मी
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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