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________________ • अष्टादश सर्ग . [ २४५ स्त्रग्धरा सर्वज्ञः सर्वदर्शी गुरणगगाजलधिमुक्तिकान्तो जिनेन्द्र: पूज्यः स्तुत्यश्च बन्यस्त्रिभुवनतिभिः सर्वशक्त्या मयापि । कमध्नो धर्मकर्ता भयरहितकरोऽनन्तशर्मकभोक्ता यः सोऽयं विश्वनाथो भवभय मधनः स्वश्रियं मेऽत्र दद्यात् ।। १५८।। इति भट्टारकश्रीसकलकीतिबिमिले श्रीपानमा सति समवसरणादानी नामाष्टादशः सर्ग, ।१८।। जो सर्वश है, सर्वदर्शी है, गुरण समूह के सागर हैं, मुक्तिकान्ता के पति हैं, जिनेन्द्र हैं, तीन लोक के स्वामियों तथा मेरे द्वारा भी सम्पूर्णशक्ति से पूज्य, स्तुत्य तथा वन्दनीय हैं, कर्मों का नाश करने वाले हैं, धर्म कर्ता हैं, भय रहित करने वाले हैं, अनन्तसुख के अद्वितीय भोक्ता है, सब के स्वामी हैं तथा संसार का भय नष्ट करने वाले हैं वे पाश्र्धनाथ भगवान इस जगत् में मुझे अपनी अनन्त चतुष्टय रूप लक्ष्मी प्रदान करें ।।१५८।। इस प्रकार भट्टारक श्रीसकल कौति द्वारा विरचित श्रीपार्श्वनाथचरित में समयसरण का वर्णन करने वाला अठारहवा सर्ग समाप्त हुभा ॥१८॥ XJE AN
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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