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________________ ११६ ] * श्री पार्श्वनाथ चरित - प्राचार्याश्च गणाधीशाश्चतुःसङ्घविराजिताः । भ्रमन्ति यत्र भव्याना धर्मोपदेशहेतवे ।।१०।। मुनिकेवलियात्राय वर्तते प्रत्यहं महान् यत्राल्यन्तोत्सवो धर्मकरणो धार्मिकैर्बुधः ।।११।। तत्रत्या धार्मिकाः केचिदस्यङ्गा यान्ति नि तिम् । तपोरत्नत्रयाचारैः केचिच्छेष शुभोदयात् ।।१२॥ सारां सर्वार्थसिद्धिं च केचिद् वेयकं दिवम् । अन्ये स्वाचरणायोग्यं गृहिधर्मादिना परे ।।१३।। जिनपूजादिमाहात्म्यादिन्द्रभूति भजन्त्यहो । केचिच्च पात्रदानेन भोगभूमौ सुखं महत् ।।१४।। 'सुधाभुजोऽपि यत्रोच्चैर्जन्मने स्यु: स्पृहालवः । मुक्तिस्त्रोव शहेत्वर्थ तत्र का वर्णनापरा ।।१५।। इत्यादिवर्णनोपेतदेशस्य धर्मकारिणः । मध्ये वाराणसी भाति स्व:पुरीव परापुरी।।१६।। तुङ्गशालप्रतोलीभिर्दीर्घस्वातिकया भृशम् । अयोध्या वा परा याभाद्भटे राजसुनादिभिः ।।१७।। उत्तु ङ्गपामशृङ्गस्थध्वजनात भीतराम् ।आयतीव नाकेश या धर्मशिवसिद्धये ॥१८॥ स्वर्णरत्लादिबिम्बोपर्धर्मोपकरगीवरे: । तत्कुट शिखरोपान्तकेतुमालाभिरत्यहम् ।।१६।। -.-.- - . - - भगवान मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति के लिये महान विभूति के साथ विहार करते हैं ॥६॥ अहाँ गरपों के स्वामी तथा चार संघों से सुशोभित प्राचार्य, भव्यजीवों को धर्मोपदेश देने के लिए भ्रमण करते रहते हैं ॥१०॥ जहां मुनियों तथा केवलज्ञानियों को यात्रा के लिये धामिक मानी जनों के द्वारा किया हुमा धर्म प्रवर्तक बहुत भारी उत्सव प्रतिदिन होता रहता है ॥११॥ वहां वे कोई धर्मात्मा तो तप तथा रत्नत्रय के प्राधरण से शरीर रहित होते हुए निर्वाण को प्राप्त होते हैं और कोई शेष पुण्योदय से श्रेष्ठ सर्वार्थसिद्धि को, कोई प्रधेयक को तथा कोई गृहस्थ धर्म प्रादि के द्वारा अपने अपने प्राचरण के योग्य स्वर्ग को प्राप्त होते हैं ॥१२-१३॥ कोई जिनपूजा आदि के माहात्म्य से इन्द्र की विभूति को प्राप्त होते हैं पौर कोई पात्रदान से भोगभूमि में महान सुख का उपभोग करते हैं ॥१४॥ मुक्तिरूपी स्त्री को वश करने के लिये देव भी जहां उत्पन्न होने के हेतु इच्छुक रहते है वहां प्रन्यपर्णना क्या है ? ॥१५॥ इत्यादि वर्णना से सहित उस धर्म प्रवर्तक देश के मध्य में स्वर्गपुरी के समान उत्कृष्ट वाराणसी नगरी सुशोभित है ।।१६।। उन्नत प्राकार ऊंचे ऊंचे गोपुरों तथा विस्तृत परिखा से युक्त जो नगरी योद्धाओं तथा राजपुत्र आदि से ऐसी सुशोभित होती थी मानों दूसरी अयोध्या ही हो ।। १७ ।। ऊंचे ऊने महलों के शिखरों पर स्थित ध्वजानों के समूह से जो नगरी ऐसी सुशोभित हो रही थी मानों धर्म के द्वारा मोक्ष की सिद्धि के लिये इन्द्र को बुला हो रही हो ॥१८।। जहां स्वर्ण तथा रत्न प्रादि से निर्मित प्रतिमाओं के समूह से, धर्म के उत्कृष्ट उपकरणों से, शिखरों के समीप फहराती हुई पताकाओं को पंक्ति से गीत नृत्य तथा वावित्र प्रावि से, जयकार तथा स्तवन प्रादि की कोटियों १. देवा अपि २. खगपुरीव ३. पुरा पुरी क. 1
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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