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* दशम सर्ग
[ ११७ गीतवर्तन वाद्यार्जियस्त्वादिकोटिभिः । पूजोपलक्षितैयु ग्मैर्यातायात योषिताम् ॥२०॥ यत्र चैत्यालयास्तुङ्गा विभ्राजन्ते मनोहरा: । परा धर्मान्धयो गतिगर्जन्तो जनसंकुलाः ॥२१।। दिव्यनेपथ्यधारिण्यो गच्छन्त्यो जिनधामनि । काश्चिद्वभुस्तरां नार्थो रूपाचर्वामराङ्गनाः ॥२२॥ जिनाभिषेकसंभूतमहापूजोद्भवः क्वचित क्वचिम्मुनीन्द्रयात्रोत्थो व्रतोद्यापनकात्मकः ।। २३॥ क्वनि बागोल्पाः कल्याणेषु जिने शिनाम । धर्मप्रभावनोद्भूतः संयमादानजः क्वचित् ॥२४॥ क्वचित्सुपात्रदानेन रनवृष्टयादिजो महान् । क्वचिज्जिनेन्द्रबिम्बोधप्रतिष्ठा दिकरोऽद्भुतः १२५।। इत्यादिकोऽपरो नित्यं धर्मकार्यसमुद्भवः । महोत्सवोऽतिवाचाथै वर्तते यत्र मङ्गलैः ॥२६।। पुत्रादिजातकर्मोत्थो विवाहादिविधिप्रजः ।गीतनर्तनतूर्याच रुत्सवो जायतेतराम् ॥२७॥ जना विचक्षणा यस्यां विवाहादिमहोत्सवे । महापूजां जिनागारे कुर्यु माङ्गल्यवृद्धये ॥२८॥ क्वचिच्छोके समुत्पन्न प्राक्तनासातपाकत: । तन्नाशाय व्यधुर्दक्षाश्चत्यागारे महामहम् ।।२६।। इत्यादिविविधाचारैः कुर्वन्ति प्रत्यहं प्रजा: । अहिसालक्षणं धर्म विचारशाः सुखाएंवम् ।।३।।
से पूजा की सामग्री से सहित पाते जाते हुए स्त्री पुरुषों के युगलों से मनोहर तथा मनुष्यों से परिपूर्ण उन्नत जिन मन्दिर ऐसे सुशोभित होते हैं मानों तीव गर्जना करते हुए धर्म के उत्कृष्ट सागर ही हों ॥१९-२१॥
जहां सुन्दर वेषभूषा को धारण कर जिन मन्दिर को जाती हुई कितनी ही स्त्रियां रूप प्रादि से देवाङ्गनाओं के समान अत्यधिक सुशोभित होती हैं ॥२२॥ जहां कहीं तो जिनेन्द्र भगवान के अभिषेक के साथ होने बालो महापूजाओं से उत्पन्न, कहीं मुनिराजों की यात्रा से उत्पन्न व्रतोद्यापन प्रावि रूप, कहीं तीर्थङ्करों के कल्याणकों में देवों के प्रागमन से उद्भूत, कहीं उत्तम पात्र दान के द्वारा होने वाली रत्नदृष्टि प्रादि से उत्पन्न, कहीं जिन प्रतिमाओं के समूह को प्रतिष्ठा आदि को करने वाला, कहीं प्रतिदिन होने वाले धर्म कायों से उत्पन्न प्रौर कहीं माङ्गलिक प्रत्यधिक बाजों आदि से उद्धत आश्चर्यकारक बहुत भारी महोत्सव होता रहता है ।।२३-२६।। जहां पुत्र प्रादि के जातकर्म तथा विवाह आदि के समय होने वाला उत्सव गीत नृत्य और वावित्र प्रादि के द्वारा अत्यधिक मात्रा में होता रहता है ॥२७॥ जहां विवेकोजन विवाह आदि महोत्सवों के समय मङ्गल वृद्धि के लिये जिन मन्दिरों में महापूजा करते हैं ॥२८॥ कहीं पूर्वभव सम्बन्धी पापकर्म के उदय से यदि शोक उत्पन्न होता था तो उसका नाश करने के लिये चतुर मनुष्य जिनमन्दिर में महामह पूजा करते थे ।।२६॥ इत्यादि विविध प्राचारों के द्वारा जहां के ज्ञानीजन प्रतिदिन सुख के सागर स्वरूप अहिंसामय धर्म को करते हैं ॥३०॥वत शील उपवासादिक दान पूजना. १. देव्य इव २. पूर्वास द्वे चोदवान् ३. विचारज क ।