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________________ २६६ ] • श्री पार्श्वनाथ चरित - चतुदिक्ष जिनस्यास्य प्रक्षरद्वचनामृतम् । श्यते भव्य संधौदिव्यं चकत्रचतुष्टयम् ।।२।। अनन्तज्ञानहावीर्यसुखात्मनोऽस्य संभवेत् । स्वामित्वं सर्वविद्यानां दोषिकानां जगत्त्रये ।।८३॥ दिव्यौदारिकदेहस्थस्थास्य जातु न जायते । छाया स्वल्पापि माहात्म्यात् त्रिचत्राङ्कितस्य व ४ केवलज्ञाननेत्रस्य नष्टे घातियतुष्टये निमेषो न क्वचिस्यात्सायोनयनाब्जयोः ।।८।। घातिकमविनाशेन जिनेन्द्रस्यारय जायते । दद्धिन सादे पाना मनाग दियाङ्गधारिण: ।।६।। एतेऽत्रातिशया दिव्या घातिकर्मक्षयोद्भवाः । अनन्यविषया अस्य भवन्ति परमा दश ।।८।। अद्धमाधिकाकारा भाषा परिणता विभोः । पशुना बहुभव्यानां सर्वसंदेहनाशिनी ॥८॥ मृगसिंहादिमानां आतिकारणवरिणाम् । जायते परमा मैत्री तन्माहात्म्याज्जिनान्तिके ।।८।। सर्वतुं फलपुष्पाढया भवन्ति तरवोऽखिलाः । देवातिशयमाहात्म्याग्निकटे श्रीजगदगुरोः ॥६॥ परितो जिन देवस्य दिव्या रत्नमयी मही। प्रादर्शसनिभा संस्थात्सर्वोपद्रवजिता ॥१॥ मुगन्धिशिशिरो वातकुमारोद्धव एव हि । बात तं जगन्नाथमनुवति मारुतः ।।६२॥ अनावृष्टि आदि ईतियां ही प्रकट होती थीं ॥१॥ जिनसे दिव्यध्वनि रूपी अमृत कर रहा है ऐसे भगवान के सुन्दर चार मुख भव्य समूहों के द्वारा चारों दिशामों में दिखाई दे रहे थे ।।२।। अनन्तज्ञान, अनन्तवर्शन, अनन्तसुख और अनन्त वीर्य स्वरूप इन भगवान के तीनों अगत् को प्रकाशित करने के लिए दीपिका स्वरूप समस्त विद्यानों का स्वामित्व प्रकट हुमा था ॥३॥ विध्य परमौवारिक शरीर में स्थित तथा छत्रत्रय से सुशोभित इन भगवान के माहात्म्य से कभी इनकी रञ्चमात्र भी छाया नहीं पड़ती थी ॥८४॥ चार घातिया कर्मों के नष्ट हो जाने पर जिनके केवलज्ञान रूपी नेत्र प्रकट हुमा है ऐसे इन भगवान् के उत्तम नयन कमलों में कहीं भी टिमकार नहीं होता था ५॥ घातिया कर्मों के विनाश से जिनके दिव्य परमौदारिक शरीर प्रकट हुआ है ऐसे इन भगवान के नख और केशों में थोड़ी भी वद्धि नहीं होती थी।६। जो घालिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न होते हैं तथा अन्यत्र नहीं पाये जाते हैं ऐसे ये केवलज्ञान के दश उत्कृष्ट प्रतिराम इन पाय जिनेन्द्र के प्रकट हुए थे ॥ ८७ ।। भगवान की भाषा अर्धमागधीरूप परिणत हुई थी तथा पशुओं और अनेक भव्य जीवों के समस्त संदेह को नष्ट करने वाली यो ॥८॥ जिनेन्द्र भगवान के समीप में उनके माहात्म्य से जन्मजात वैर करने वाले मृग, सिंहावि पशुओं तथा मनुष्यों में परम मित्रता हो जाती थी ॥८६।। श्री जगदगुरु के निकट व. कृत अतिशय के माहात्म्य से समस्त वृक्ष सब ऋतुओं के फल और पुष्पों से.युक्त हो जाते थे ॥|| जिनेन्द्र भगवान् के चारों ओर की दिव्य और रत्नमयी भूमि दर्पण के समान निर्मल तथा सब उपद्रवों से रहित हो गयी थी ।९१॥ जब त्रिलोकीनाथ भगवान विहार
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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