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________________ .द्वाविंशतितम सर्ग . २९७ सन्यिदानन्दमाहात्म्यात्सम्यानां सन्निधौ विभोः । सर्वेषो परमानन्दो जायते घमंशर्मकृत् ॥१३॥ मकरकुमारदेवोऽस्थास्थानाद्योजन समितम् ।कुर्यात्महीतलं रम्यं तृणकीटादिवजितम् ॥१४॥ गन्धोदकमयों वृष्टि करोति स्तनितामरः । प्रस्यान्ते दिव्यगन्धालयां विन्मालादिभूषिताम्ह५ पादन्यासेऽस्य पधानि संचारयन्ति निर्जरा: । हैम्यानि निखिलानि द्विशतानि पञ्चविंशतिः।।१६।। शाल्यादिकृत्स्नसस्यानि सर्व विविधं फलम् । फलन्ति फलसंनम्राणि देवेशस्य सनिधी ।।१७।। शरत्कालसर: प्रख्यं निमलं व्योम जायते । भवन्ति निर्मला: सर्बा दिशः पार्वे जिनेशिनः।।१८।। शाजया प्रकुन्ति बाह्वाननं परस्परम् । देश जिनेन्द्रयात्राय धर्मकार्योद्यताशयाः ।।६।। प्रबत्यस्य पुरो दिव्यं धमंच सुरेधूतम् । सहस्रार महादीप्तं हसमिथ्याघसंचयम् ।।१०।। पादर्शादीनि दिव्याष्टमङ्गलानि दिवौकसः । प्रकल्पाते जिनेन्द्रस्य भक्त्या तत्पदकाडि क्षरणः ।। करते थे सब उनके पीछे पीछे वायु कुमार देवों के द्वारा उत्पन्न शीतल और सुगन्धित वायु चलती थो॥ ६२ ।। भगवान के सभिधान में उनके चिदानन्द के माहात्म्य से सभा में रहने वाले सभी जीवों को धर्म-सुख-स्वाभाविक सुख को करने वाला परमानन्द होता था ॥६॥ वायुकुमार के देव इनके ठहरने के स्थान से लेकर एक योजन तक के प्रथिवी तल को रमणीय तथा तृरण प्रौर कीड़ों श्रादि से रहित कर देते थे ॥६४॥ मेघकुमार जाति के देव इनके समीप दिव्यगन्ध से युक्त तथा बिजलियों के समूह से सुशोभित गन्धोवक की दृष्टि करते थे ॥६॥ इनके पैर रखने के स्थान पर वेव सुवर्ण कमलों की रचना करते पे और वे सुवर्ण कमल सब मिलाकर दो सौ पच्चीस रहते थे। भावार्थ- विहार काल में वेब लोग भगवान के चरण कमलों के नीचे तथा प्राडू बाजू में पन्द्रह पन्द्रह कमलों की पंक्तियां रचते थे उन सब कमलों की संख्या दो सौ पच्चीस होती थी ।।६६॥ देवाधिदेव पाश्वं जिनेन्द्र के समीप धान को प्रादि लेकर समस्त अनाजों के पौधे फलों से नम्रीमूत रह कर सा ऋतुओं के विविध फलों को फलते थे ।।७॥ जिनेन्द्र भगवान के समीप भाकाश शरद ऋतु के सरोवर के समान निर्मल हो गया था और सभी दिशाएं भी निर्मल हो गई थीं जिनका अभिप्राय धर्म कार्य में लग रहा है ऐसे देव, इन्द्र की प्राता से जिनेन्द्र बेब की यात्रा के लिये-उनके साथ चलने के लिये परस्पर एक दूसरे को बुला रहे थे ६॥ जिसे देवों ने धारण कर रखा था, जिसमें हजार मारे थे, जो महादेदीप्यमान था, तथा जिसने मिथ्यात्व तथा पापों के समूह को नष्ट कर दिया था ऐसा दिव्य धर्मचक्र इनके पागे मागे चल रहा था ॥१०॥ जिनेन्द्र भगवान की भक्ति से उनके पद की इच्छा करने वाले वेव, दर्पण मावि पाठ मङ्गल द्रव्यों की रचना करते जाते थे॥१०॥
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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