SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वाविंशतितम सर्ग 0 [ २६५ -..-man-rrrrrrrrrrrn प्रध्वनइध्वनिगम्भीरः सितच्छत्रत्रयाङ्कितः । देवदुन्दुभिसंयुक्तो भानुकोट यधिकप्रभः ॥७२॥ दिव्यसिंहासनासीमो लोकतरुशोभितः । पुष्पवृष्टिममाकीरणः सितचामरंवीजितः ॥७३॥ हिषदभेदगरणाक्षपः समय सृत्याविभूषितः । प्रयके विजयोद्योग धर्मचकाधिपो जिन: ||७|| अयेत्युमन गिरा देवा घोषमाणा: खमण्डलम् ।दिशा मुस्खानि तेजोभिद्योतयन्त प्रतस्थिरे ।।७।। प्रतस्थे भगलानित्यमनुयातः खगाभरेः ।पनिच्छापूरिको वृत्तिमास्कन्दन्निव भानुमान् । ७६ । मतयोजनमानं सुभिक्षं सर्वामु दिक्ष हि । प्रत्येक जायते तस्यास्थानाद् प्रातिविमाशिनः ।।७।। विश्वसंबोधनायें वास्पृशन् देवो महोतलम् । जत्येव नभोभागे भव्यङ्गय धरणोयन: ।।७८|| सिहादिक रसत्त्वौबईन्वन्ते जातु नाङ्गिनः । तत्प्रशामप्रभावेण वैरिभिः श्रोजिनान्तिके ।।७।। प्रनन्तसुखतृप्तस्य गीतरागस्य सत्पते: । अस्यास्ति कवलाहारं न जातु मोहव्यत्ययात् ।।८।। देवस्थानन्तशनिजितदुर्घातिकर्मणः । नोपसगा हि केचिच्च भवन्ति जातु ने तयः ।।८१३॥ उठे ॥७॥ जो गरजती हुई दिव्य स्वनि से गम्भीर थे, श्वेत छत्रत्रय से सहित थे, वेबदुन्दुभियों से युक्त थे, जिनमा भागात रोगों सूर्गों से भी अधिक प्रभा वाला था, जो दिव्य सिंहासन पर प्रारूद थे, प्रशोक वृक्ष से सुशोभित थे, पुष्प वर्षा से व्याप्त थे, जिन पर सफेद चामर ढोले जा रहे थे, जो बारह सभात्रों से सहित थे, समवसरण पादि से विभूषित थे तथा धर्मचक्र के स्वामी थे ऐसे श्री पाश्वं जिनेन्द्र ने विजय का उधोग किया अर्थात् वे बिहार के लिए उद्यत हुए ॥७१-७४।। 'जय जय' इस प्रकार की उम्मवारणी के द्वारा जो गगन मण्डल को मुजित कर रहे थे तथा अपने तेज से जो विशानों के प्रमभाग को प्रकाशित कर रहे थे ऐसे देव लोग भगवान् के साथ प्रस्थान कर रहे थे। ७५॥ इस प्रकार देव और विद्याधर जिनके पीछे पीछे चल रहे थे तपाको प्रमिच्छा पूर्वक वृत्ति को प्राप्त थे-इच्छा पूर्वक जो विहार नहीं कर रहे थे ऐसे भगवान पाश्र्वनाम ने सूर्य के समान प्रस्थान किया ।। ७६ ॥ घातिया कर्मों का क्षय करने वाले भगवान् जहां विराजमान थे वहां से सौ योजन सक सब दिशाओं में सुभिक्ष रहता था १७७॥ भव्य जीवों का उद्धार करने में तत्पर हुए श्री पाश्र्व जिनेन्द्र सबको संबोधित करने के लिए ही मानों पृथिवीतल का स्पर्श न करते हुए प्राकाश में ही विहार करते थे ॥७श्री जिनेन्द्र के समीप उनको लोकोसर शान्ति के प्रभाव से घरयुक्त सिंह माविक दुष्ट जीवों के समूह द्वारा कभी कोई जीव नहीं मारे जाते थे ।।७।। अनन्त सुख से संतुष्ट, वीतराग तथा सत्पुरुषों के स्वामी इन पारवं जिनेन्द्र के मोह का प्रभाव हो जाने से कभी मी कवलाहार नहीं होता था ॥०॥ अनन्त बल से सहित तथा दुष्ट घातिया कमों को जीतने वाले भगवान के समीप न कभी कोई उपसर्ग होते थे और म अतिवृष्टि
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy