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________________ A - - - - r a ... .. * श्री पाश्वनाथ चरित - कृत्स्नदुःखाकरीभूत ससारं शर्मदूरगम् । भ्रमन्येवाङ्गिनोऽनादि धर्महीनाः कुकर्मणा ।।।। क्षुतट्रोगाग्निसंतप्ते क्लिष्टे कायकुटीरके । सर्वाशुच्याकरे निन्द्य को विघते रतिं सुधीः ।।१०।। भुजङ्गसदृशान् भोगा नतृप्तिजनकान् स्खलान् । एनोऽब्धीन् ' दुःखजान् दुःखकरान् कः सेवसे सुधी।११ यावदायुनं क्षीयेत यावन्न ढोकते' जरा । पटूनि यावदक्षारिण तावधर्म ज्यधुर्बुधाः ।।१२।। इत्यादिचिन्तनेनाशु संवेग द्विगुरण नृपः : सार बहमानमवादिषु ।।१३।। ततस्त्यक्त्वाखिलं राज्यं सता त्याज्यं तृणदिवत् । आददे संयम देवदुर्लभं स सुखाएंवम् ।।१४।। द्विषड्भेदं तपः कुर्याद् ध्यानाध्ययनमन्वहम् । व्युत्सर्गे निष्धमादेन कर्महान्ये च सम्मुनिः ॥१५॥ प्रर्थकदा बमे गच्छन् सम्मेदादि प्रवन्दितुम् । साद्धं सार्थेन भक्त्यै स ईर्यापथस्थलोचनः ।।१६।। संदधे प्रतिमायोग स्ववेलायां सुदुष्करम् । भूत्वा काष्ठोपमोऽने करौद्रसत्वसमाकुले ||१७॥ सब पापों को खान और धर्म को नष्ट करने वाला है । यह संसार समस्त दुःखों की खान स्वरूप है तथा सुख से दूर है । धर्महीन प्रारणो अपने कुत्सित फर्म के कारण इस अनादि संसार में निरन्तर भ्रमण करते रहते हैं ॥६॥जो भुधा, तृषा तथा रोगरूपी अग्नि से संतप्त है, संक्लेशमय है, समस्त अपवित्र पदार्थों की खान है तथा निन्दनीय है ऐसे शरीर रूपी कुटीर-छोटीसी झोपड़ी में कौन बुद्धिमान मनुष्य राग करता है ? अर्थात् कोई नहीं ॥१०॥ जो सापों के समान हैं, अतृप्ति को उत्पन्न करने वाले हैं, दुष्ट हैं, पाप के सागर हैं, दुःख से उत्पन्न होते हैं, और दुःखों को उत्पन्न करते हैं ऐसे भोगों का कौन बुद्धिमान सेवन करता है ? अर्थात् कोई नहीं ॥ ११ ॥ जब तक प्रायु क्षीण नहीं हुई है, जब तक जरावृद्धावस्था नहीं पाई है और जब तक इन्द्रियां अपना काम करने में समर्थ है तब तक बुद्धिमान मनुष्यों को धर्म कर लेना चाहिये ॥१२॥ इत्यादि विचार से राजा शीघ्र ही शरीर, भोग तथा संसार आदि के विषय में स्वर्ग तथा मोक्ष को करने वाले दुगुने वैराग्य को प्राप्त हो गया ॥१३॥ ___तदनन्तर सत्पुरुषों के छोड़ने योग्य समस्त राज्य को तृणादि के समान छोड़ कर राजा अरविन्द ने बेव-दुर्लभ तथा सुख के सागर स्वरूप संयम को ग्रहण कर लिया अर्थात् मुनि दीक्षा ले ली ॥१४॥ वे उत्तम मुनि कर्मों का क्षय करने के लिये प्रमाद रहित होकर प्रतिदिन बारह प्रकार के तप, ध्यान, अध्ययन और कायोत्सर्ग करने लगे ॥१५॥ तदनन्सर एक समय वह मुनिराज गमन के मार्ग पर अपने नेत्रों को स्थापित करते हुए-ईर्यासमिति से चलते हुए, भक्तिवश सम्मेद शिखर की वन्दना करने के लिये एक बड़े संघ के साथ उस सल्लको वन में पहुंचे। अनेक दुष्टजीवों से भरे हुए उस वन में उन्होंने १ पापसागरान् २.पागच्छति ३ द्वादशमिषं ४. प्रतिदिनम ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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