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द्वितीय सर्ग.
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द्वितीय सर्गः श्रीपार्थ जिनपं वन्वे धर्मचक्रप्रवर्तकम् । सर्वशं विश्वभर्तारं कृत्स्नानर्थहरं चिदे ।। ।। विषये कुब्जकास्येऽथ विपुले सल्लकोयने । पुनिद्विपारिसंसेव्ये फलनम्रतरुबजे ॥२॥ मरुभूतिरभून्मृत्वा बज्रघोषाभिधो महान् । द्विपाधिपो' महाकाय प्रातध्यानफलेन सः ॥ ३ ॥ वरुणापि मृता तस्य करेगुरभवत्प्रिया । सस्नेहा साशुभा तुजा भार्या प्राक्कमठस्य या।।। कुत्वा राज्य कियत्कालं विलीनाभ्र निरीक्ष्य सः । काललब्ध्या नृपः प्राप्य वैराग्यमिति चिन्तयेत्।।५।। राज्यं रजोनिभं निन्य बहुवैरकरं भुवि ।कृत्स्नचिन्ताकरं पापमूलं क: पालयेत्सुधीः ॥ ६ ॥ बेश्येव चपला लक्ष्मी :प्राप्या बहुसेविता । प्राया चौरादि-क्षुद्रोधः श्वभ्रदा' मोहकारिणी।। पानवा बन्धनानि स्पु भार्या मोहखनी खला। विश्वपापाकरं सर्व कुटुम्ब धर्मनाशनम् ।।८।।
द्वितीय सर्ग जो धर्मचक्र के प्रवर्तक हैं, सर्वज्ञ हैं, सब के रक्षक हैं और समस्त प्रमों को हरने वाले श्री पप जिनेन्द्र जी जिसनका स्यात्सोपलब्धि के लिये वन्दना करता है ॥१॥
सदनन्तर कुब्जक देश में एक विशाल सल्लकीवन है। वह वन मुनि और सिंहों के द्वारा सेवनीय है अर्थात् उसमें या तो निर्भय मुनि विचरते हैं या दुष्ट सिंह निवास करते हैं तथा पक्षों के समूह फलों से नम्रीभूत हैं । मरुभूमि भर कर उसी वन में प्रात्त ध्यान के फलस्वरूप वज्रघोष नामका बहुत बड़ा महा शरीर का धारक हाथो हुभा ॥२-३॥ पूर्व भव में कमठ की जो वरुणा नाम की स्त्री थी वह भी मरकर इसी वन में हस्तिनी हुई। वही हस्तिनी शुभ, ऊंची तथा स्नेह से युक्त इस हायी की प्रिया हुई ॥४॥ राजा अरविन्द कितने ही समय तक राज्य कर एक दिन विलीन होते हुए मेघ को देखकर काललब्धियश वैराग्य को प्राप्त हो गये तथा ऐसा विचार करने लगे कि यह राज्य धूलि के समान निन्द्य है, पृथिवी पर अनेकों के साथ वैर कराने वाला है, समस्त चिन्ताओं को उत्पन्न करने वाला है और पाप की जड़ है, ऐसे राज्य को कौन बुद्धिमान् रक्षा करेगा? अर्थात् कोई नहीं ॥५-६॥ लक्ष्मी धेश्या के समान चंचल है, कठिनाई से प्राप्त होने योग्य है, बहजन सेक्ति है, चोर मावि शुद्रजीवों के समूह के द्वारा प्रार्थनीय है अर्थात वे सदा इसको बांछा करते रहते हैं, नरक को देने वाली है और मोह को उत्पन्न करती है ।।७॥ भाई-बान्धव बन्धन स्वरूप है, स्त्री मोह की खान तथा दुष्ट स्वभाव वाली है, तथा समस्त कुटुम्ब परिवार
१. गजराज:२. विलीनमेषं ३. नरकप्रदा।