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* एकोनविंशतितम सर्ग
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भगवंस्तस्वविस्तारं हेया हेयं वरागमम् : मोक्षमार्गफलं मुक्तेस्त्वं निरूपय चाखिलम् || ६६ ।। केन पापेन यान्त्यत्र श्वभ्रतियग्गति' जना: 1 न पुण्येन नाक च गर्ति केन कर्मणा । ॥ ८७ ॥ श्रभिराः कर्मरणा केल जान्धा मूका: भवन्ति च । पङ्गवो धनिनो निर्धनाः केनाचरन हि ॥८६ विधिना केन जायन्ते वा स्त्रियोऽङ्गिनः । नपुंसकाः किलाल्पायुषो दीर्घायुष एव पुरुषा भोगिनो भोगहीनाश्च सुखिनो दुःखिनोऽङ्गिनः पाण्डित्यं कर्मरगा केन मूर्खश्वमाप्नुवन्ति च संसार: कर्मणा केन स्थिरः केन परिक्षय: उत्तमाचरणेनात्र केन त्वदीयसत्पदम् कि सुधर्मतरोर्मूलं तीर्थनाथ कृपापर: नश्येच्च न पथा जातु तमो नश्यं रविना यथा नानुग्रहः पुंसां बिना मेघात्वरो भुवि
। मेधाविनश्च दुर्मेधाः स्युः केनाचरीन च 118 11 : रोगान्पुत्रवियोगांश्च भवन्ति विकलाजिनः १६१।। । केन प्रोच्चकुलं नीचं जायते न हि तृणाम् ।। ६२ ।। दिपदं चोखते मताम् ॥६३॥ 1 इमां सुप्रश्नमालां त्वं व्यक्तार्थः प्ररूय ॥ ६४॥ । तथा नः संशयध्वान्त भवद्वाक्य किरीविना ।।१५।। । तथा देव ।। ६६ ।।
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हे भगवन् ! श्राप हेयोपादेय तत्वों के विस्तार, उत्कृष्ट श्रागम, मोक्षमार्ग का फल तथा मुक्ति से सम्बन्ध रखने वाली समस्त विशेषताओं का निरूपण कीजिये || ८६|| इस जगत् में मनुष्य किस पाप से नरक और तियंच गति में जाते हैं, किस पुण्य से देव गति में जाते हैं और किस कार्य से मनुष्यगति को प्राप्त होते हैं ॥ ८७ ॥ मनुष्य किस कर्म से धंधे,
गे और लंगड़े होते हैं तथा किस प्राचरण से लंगड़े, धनवान् प्रथवा निर्धन होते हैं ॥६८॥ किस कर्म से प्रारणी पुरुष, स्त्री प्रथवा नपुंसक होते हैं तथा किस कर्म से अल्पायुष्क पौर दीर्घायुष्क होते हैं ||८|| जोय किस प्राचरण से भोगवान्, भोगरहित, सुखी, दुःखी, बुद्धिमान और बुद्धि होते हैं । ६० किस कर्म से जीव पाण्डित्य मूर्खता, रोग तथा पुत्र वियोग को प्राप्त होते हैं प्रौर किस कर्म से विकलाङ्ग होते हैं ॥१॥ मनुष्यों का संसार किस कर्म से होता है, किस कर्म से स्थिरता और परिक्षय प्राप्त होता है, तथा किस कर्म से उच्च या नीच कुल होता है ।। ६२॥ सत्पुरुषों को किस उत्तम प्राचरण मे wret प्रशस्त पद, प्रहमिन्द्र का पद तथा चक्रवर्ती का पद प्राप्त होता है ||३|| हे तोर्थनाथ ! सुषर्मरूपी वृक्ष का मूल क्या है ? प्राप दया में तत्पर होकर हम सब के लिये इस प्रश्नमाला का स्पष्ट उत्तर कहिये ।। ६४ ।। जिस प्रकार सूर्य के बिना रात्रिका अन्धकार कभी मष्ट नहीं होता उसी प्रकार आपके वाक्यरूप किरणों के बिना हम लोगों का संशयरूपी ग्रन्धकार कभी नष्ट नहीं हो सकता ।। ६५ ।। जिस प्रकार पृथिवी पर मेघ के विना प्रत्य
९. श्वभ्र तिर्यग्गति म० प० ।