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________________ २२२ ] ● श्री पाश्वनाथ चरित * द्विषभेदं तपः सोऽघात् परं कर्मवनानलम् । प्रागजित विषेर्हन्यै मुक्तिनारीवशीकरम् ||५०|| पञ्चेन्द्रियकुलौरान समस्तानर्थविधायिनः । निर्वेदतीकरणखड्गेन जघान मुक्तिर्म ।। ५१ ।। 'जजूम्भे ध्यानह्निमंनोगारे कपनाति । विभोः काष्ठानां 'भस्मीमाकरः परः । ५२ । माद्रादिदुर्ष्याना नायकाश जन्महो । जात्वस्य हृदये धर्म्यशुक्लध्याना' भिवासिते । ५३१ दुश्या न पदं चक्रुश्चिसेोऽस्य मलदूरगे । शुभलेश्याकृतावासे वचिद्धयामपरायणे । । ५४ ॥ भ्रमन्तं विषयारण्ये चलं चितमर्कटम् । ज्ञानशृङ्खलया ध्यानस्तम्भे शुद्ध मबन्ध सः । ५५ । नयन् स तु मासांच्याद्मस्थ्येनागमज्जिनः । प्रत्यासनभवप्रान्तः प्राग्दीक्षा प्रहरो बने । । ५६ ।। तत्रैवाधस्तले देवभूमिहीरुहः । अष्टमाहारसंत्यागं कृत्वा त्यक्त्वा निज वपुः ॥ ५७ योगं सप्त दिनावधिम् । व्यधात्कर्मवनाग्नि समस्त योगनिरोधकम् || १८ || रूपी रणाङ्गण में ध्यानरूपी खड्ग के द्वारा कर्मरूपी शत्रुओं की सेना का घात कर रहे थे ऐसे वे पम्प मुनि प्रपूर्व सुभट के समान सुशोभित हो रहे थे ।।४७-४६ ।। पातिकमायास) ये पूर्वोपार्जित कर्मों की निर्जरा के लिये कर्मरूपी वन को भस्म करने हेतु प्रग्नि के समान तथा मुक्तिरूपी स्त्री को वश करने के लिये वशीकरण मन्त्र के तुल्य बारह प्रकार का तप करते थे ।। ५० ।। वे मुक्ति सम्बन्धी सुख के लिये समस्त अनर्थों को करने वाले पञ्चेन्द्रियरूपी दुष्ट चौरों को वैराग्यरूपी तीक्ष्ण तलवार के द्वारा नष्ट करते थे ।।५१|| नाना प्रकार की कल्पनाओं से रहित उनके मनरूपी मन्दिर में दुष्ट कर्मरूपी काष्ठों को भस्म करने वाली ध्यानरूपी उत्कृष्ट प्रग्नि प्रज्वलित रहती थी ।। ५२ ।। ग्रहो ! धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान से सुशोभित इनके हृदय में कभी भी प्रातं रौद्र आदि खोटे ध्यान अवकाश नहीं प्राप्त करते थे ।। ५३|| शुभलेश्यानों से युक्त तथा ध्यान में तत्पर रहने वाले इनके निर्मल चित में अशुभ लेश्याएं कहीं भी स्थान नहीं प्राप्त कर सकती थीं । । ५४ ।। उन्होंने विषयरूपी वन मे घूमते हुए चञ्चल चित्तरूपी दानर को शुद्धि के लिये ज्ञानरूपी सांकल के द्वारा व्यानरूपी स्तम्भ में बांध रक्खा था ॥ ५५॥ जिनके संसार का किनारा प्रत्यन्त निकट रह गया है ऐसे पार्श्वजिन छद्मस्यभाव से चार माह व्यतीत कर पहले के दीक्षावन में श्राये ।। ५६ ।। वहीं उन्होंने देवदारवृक्ष के नीचे तेला का नियम लेकर कायोत्सगं किया और घातिया कर्मों का क्षय करने के लिये सात दिन तक का योग-ध्यान धारण कर लिया। उनका वह योग कर्मरूपी वन को प्रग्नि स्वरूप था तथा समस्त योगों-मन वचन काय की प्रवृतियों का निरोध करने वाला था ।।५७ – ५६।। १. ०२. भस्मीभावकरः परः स० ग० ३. शुक्लष्यनिवासि ग
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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