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________________ anwwinnar • सप्तश सर्ग . [ २२३ पावरसोऽस्थाज्जिनाधीशम्स्यक्तदेहोऽचलोपमः ।सरवसारोऽतिरिमा घHध्यान प्रवर्तयन् ।।५।। तावरस प्राक्तनः पापी 'संबराख्योऽति दुष्टधीः । ज्योतिष्कनिर्जरो गच्छन् खे तस्योपरि तत्क्षणम् ६० विमानरूक एवं श्रीजिनयांगप्रतापतः निमः सविमानोऽभूत्कीलितो बार केनचित् । ११ ॥ स्वं निरुवं विबुद्धघाशु विभङ्गन पुरातनम् । वैरं पाप महाकोपं सोऽनन्तभवकारणम् ॥६२।। सतः कोपाग्निना दग्धसर्वाङ्गो पहिरन्तरे । भूत्वाङ्गारमिभो नेत्रे चोपसर्गे मति व्यपात् ।६३ ।। वित्रियद्धिबलात्पापो कुर्याद्वरतरं प्रभोः । दुस्सहं प्रोपसर्ग कातराणा मोतिदायकम् ।।६।। मुशलोपमधारोघवर्षणैश्चापउम्बरेः । झञ्झायातसमूहश्च धद्विवनमज्जनः ।।६।। सदरण्यं तदा काले निमग्नमाद्रिपादपम् । सर्वत्र जलसंपूर्ण बभूवेव महारणंवम् ।।६६।। सधैव सोऽतिपास्मा महोग्रोप्रतरानधात् । बहून् सुविविधान् शक्त्या प्रोपसर्गान्सुदुस्सहान् ६७। ध्यानध्वंसकरस्तीक्ष्णः शपनाटिकुजल्पनः । प्रन्योरैश्च शैलोपनिपालाई भयरः ।।६।। जिन्होंने शरीर से ममताभाव छोड़ दिया है, जो पर्वत के समान स्थिर है, बलयुक्त है और प्रत्यधिक धेयंशाली हैं ऐसे पावं जिनेन्द्र पर्यध्यान को प्रवति हुए ज्यों ही वहां स्थित हुए श्यों ही वहां पूर्व का पापी, संवर नामका ज्योतिषी देव जो कि दुष्ट बुद्धि था तथा उस समय विमानारूढ हो आकाश में जा रहा था, जब पारवं जिनेन्द्र के ऊपर से जाने लगा तब उनके ध्यान के प्रताप से वह विमान सहित ऐसा रक गया मामों किसी ने कोल दिया हो ।।५६-६१॥ अपने प्रापको का हुमा जानकर उसने शीघ्र ही विभङ्गावधि का प्रयोग किया। उसके द्वारा पूर्व वैर को जानकर वह अनन्त संसार के कारण स्वरूप महान् क्रोष को प्राप्त हुमा ॥६२।। तदनन्तर कोषाग्नि से भीतर बाहर जिसका समस्त शरीर बग्ध हो गया था तथा जिसके नेत्र अंगार के समान लाल लाल हो रहे थे. ऐसे उस संवर देव ने उपसर्ग करने का निश्चय किया ॥६३॥ विक्रिया ऋद्धि के बल से उस पापी ने प्रभु के ऊपर ऐसा भारी उपसर्ग किया जिसमें तीन बर भरा हुमा पा, जो दुःसह था तथा कायर मनुष्यों को भय उत्पन्न करने वाला था ॥६४॥ उसने वह 'उपसर्ग इन्द्र धनुष के विस्तार से सहित तथा पृथिवी पर्वत और धन को डुबा देने वाली मुसल के समान बड़ो मोटी धारा समूह को वर्षा और झमा वायु के समूह के द्वारा किया था ।॥६५॥ उस समय, जिसमें पृथिवी, पर्वत और वृक्ष डूब गये हैं ऐसा जल से भरा हुमा वह पन महासागर के समान हो गया था ।।६६३ जिसकी प्रात्मा प्रत्यन्त पाप से युक्त है ऐसा वह संवर देव शक्तिपूर्वक नाना प्रकार के बहुतभारी असह्य, तीक्ष्ण से तीक्ष्ण महान उपसर्ग करता रहा। कभी वह ध्यान में बाधा डालने वाले कठोर अपशब्दों का उच्चारण करता, कभी बड़ी १. संवारास्मो ख. ग. २. शिलोप ५० शीलोप ख. ग. ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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