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________________ - --rrrrrramanan २२४ ] * श्री पार्श्वनाथ चरित . यत्किञ्चिद्विशते तस्य सामथ्र्य विक्रियोद्भवम् । तेन सप्तदिनान्तं स चकारोपद्रवं परम् ।।६।। प्रस्तावेऽस्मिन्महादक्षहढबराग्यवासितम् । संक्लेशादिविनि:क्रान्तं तत्त्वचिन्तावसम्बितम् ।। निर्भयं निर्विकारं स ज्ञानध्यानपरायणम् । निर्विकल्पपदापन दधेऽसौ स्वं मनो जिन: ।।७१।। अनेकगुणसपूर्ण ज्ञानमूर्ती निजास्मनि । अनन्तमहिमोपेत'चंतन्यगुणशालिनि ॥७॥ अतो निश्चलचित्त न धैर्यादिगुणराषिभिः । जाननपि न येत्यभ्यन्तरे वाधां म तस्कृताम् ।७३॥ न मनाक चलितो ध्यानान्न क्लेशदुःख वेदकः । न मनाग विकियापन्न: सुखरूपोऽभवत्सुधीः ।७४। अतोऽसो ज्यानसनीनो निष्कम्पो मेरुव द्विभुः । प्रस्थाज्जित्वा समस्तान तत्कृतान् सर्वानुपद्रवान् । चलत्यचलमालेयं क्वचि वादहो भुवि । न पुनर्योगिनां चित्त ध्यानात्सर्वपरीषहैः ।।७६।। अहो धन्यास्त एवात्र येषां न स्खलितं मनाक । वीर्य वा साहसं जातु महोपद्रवकोटिभिः ॥७७।। तदा जिनमहायोगसामाद्धरणेशिनः । पातयन्निव तं भूमौ स्वासनं कम्पितं तराम् ।।७।। बड़ी शिलानों को लाकर समोप में गिराता और कभी अन्य भयकर उत्पात करता था। उसकी विक्रिया को जिसनी सामर्थ्य थी उसके अनुसार वह सात दिन तक अत्यधिक उपद्रव करता रहा ॥६७-६६।। इस अवसर पर जिनेन्द्र भगवान ने जो अत्यन्त समर्थ हद वैराग्य से युक्त था, संवलेशादि से रहित था, तत्त्वचिन्ता में लीन था, निर्भय था, निर्विकार था, ज्ञानध्यान में तत्पर था, तथा निर्विकल्प पद को प्राप्त था ऐसे अपने मन को अनेक गुणों से परिपूर्ण, ज्ञानमूति तथा अनन्त महिमा से युक्त चैतन्यगुण से सुशोभित अपनी प्रात्मा में स्थिर किया था ॥७०-७२।। यही कारण था कि वे घेर्यादि गुणों के समूह से निश्चलता को प्राप्त हुए चित्त से उस देवकृत बाधा को जानते हुए भी अन्तरङ्ग में उसका बेवन नहीं करते थे ॥७३॥ न वे रञ्चमात्र ध्यान से चलायमान हुए थे, न क्लेशजन्य दु.ख का बेवन करते थे पोर न रञ्चमात्र विकार को प्राप्त हुए थे। किन्तु इसके विपरीत सुखी और सुधुद्धि के धारक हए थे ।।७४।। जो ध्यान में लीन थे तथा मेरु पर्वत के समान निष्कम्प थे ऐसे प्रभु पाश्वनाथं देवकृत समस्त उपद्रवों को जीत कर वहां स्थिर रहे ।।७५।। प्रहो! पृथिवी पर कहीं दैववश यह पर्वतों को पंक्ति भी चलायमान हो जाती है परतु समस्त परिषहों से योगियों का मन ध्यान से चलायमान नहीं होता ।।७६॥ अहो ! इस जगत में वे ही अन्य हैं जिनका वीर्य और साहस करोड़ों महोपद्रयों से कभी रञ्चमात्र भी स्खलित नहीं होता७७ उस समय जिनेन्द्र भगवान के महाध्यान की सामध्यं से धरणेन्द्र का अपना प्रासन इतना अधिक कम्पायमान हुमा मानों उसे पृथिवी पर गिरा ही रहा हो ।।७।। सबनन्तर १.महिमोपेत खक ग० २. सुम्ब रूपे ख..।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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