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________________ सप्तदश सर्ग [ २२१ बाह्याभ्यन्तरसङ्गषु सचित्ताचिसवस्सुषु । पञ्चाक्षविषयेष्वेव सुखदुःखविधायिषु ॥ ३६।। सुमनोज्ञामनोशेषु रागद्वेषादिवर्जनाः । पञ्चेमा भावना भाव्या: पञ्चमवतशुद्धये ॥४०।। महाननिशुस्य : आनिगतिः। भाषयामास तीर्थेश एता: सह सशुद्धिदाः ।।४।। प्रष्टो 'प्रवचनाम्बा: स मातृवद्धितकारिणीः। त्रिशुबचा पालयामास सर्वात्रविहानये ।।४२॥ पानि कानि त्रिशल्यानि शल्यवद्द :सदानि च । मिध्यादीनि जिनाधीशगंहितानि जिनागमे ।।४३॥ व्युत्सृज्य तानि सर्वाणि नि:शल्यः भीजिनाप्रणी: । ग्रामखेटपुराटव्यादिषु संपिहरेत्सदा ।।४।। विहरन्सोऽप्य र यादों यास्तं रविरन्यगात् । कायोत्सर्ग विधायाशु तत्रैवास्थासुनिर्भयः ।। ४५।। श्मशाने भीषणे रोने वने चाद्रिग्रहान्सरे । एकाकी सिंहवद्रात्रौ निःशङ्कः सोऽनिशं वसेत् ।४६। अष्टादशसहस्रप्रशीलसनामित: । चतुरशीतिलक्षप्रगुणभूषणभूषितः ।।४।। रत्नत्रयशरोपेतस्तपोधनुर्विमण्डितः ।महाशमगजारूतो धैर्यशाली जगद्गुरुः ।।४।। निघ्नन्कर्मारिसन्तानं सुचारित्ररणाङ्गणे । ध्यानखड्गेन भाति स्म सोऽपूर्यो वा भटोत्तम: ४६। त्याग करना और गरिष्ट तथा इष्ट प्राहार का त्याग करना ये पांच ब्रह्मचर्य महाव्रत को भावनाएं हैं ॥३७-३८।। बाह्याभ्यन्तर परिग्रहों में, सचित्तापित्त वस्तुमों में तथा सुख दुःख करने वाले पञ्चेन्द्रियों के इष्ट-प्रनिष्ट विषयों में रागद्वषादि को छोड़ना ये पांच भावनाए पञ्चमवत-परिग्रह त्याग महावत में शुद्धि उत्पन्न करने के लिये हैं ॥३६-४०॥ इस प्रकार तीर्थ के स्वामी श्री पार्वजिनेन्द्र महावतों को विशुद्धि के लिये सम्पचारित्र में शुद्धि प्रदान करने वाली इन पच्चीस भावनामों का चिन्तवन करते थे ॥४१॥ के समस्त प्रालय को नष्ट करने के लिये माता के समान हित करने वाली पाठ प्रवचन मातृकानों-पांचसमिति और तीन गुप्तियों का त्रिशुद्धिपूर्वक पालन करते थे।४२१ जिनेन्द्र भगवान ने जिनागम में शल्य के समान दुःल बेने वाली जिन मिथ्यात्व प्रावि तीन शल्यों को निन्वित बताया है उन सबको छोड़कर पाय मुनिराज निःशल्प होते हुए ग्राम खेट पुर तथा अटवी आदि में सदा विहार करते रहते थे ।।४३-४४।। बन प्रादि स्थानों में विहार करते हुए वे, जहां सूर्य अस्त हो जाता था वहीं पर शोध कायोत्सर्ग कर प्रत्यन्त निर्भयरूप से ठहर जाते थे ॥४५।। वे रात्रि के समय सिंह के समान अकेले तथा निःशङ्क होकर भयकर श्मशान, शैद्रवन और पर्वत की गुफाओं में सवा निवास करते थे ॥४६॥ जो अठारह हजार शील के भेवरूप कवच से युक्त थे, चौरासी लाख उत्तर गुणरूपी प्राभूषणों से विभूषित थे, रत्नत्रयरूपी बाणों से सहित थे, तपरूपी धनुष से मण्डित थे, महाशान्तपरिणामरूप हाथी पर सवार थे, धैर्यशालो थे, जगत् के गुरु थे और सम्यकचारित्र १. पञ्चसमितित्रिगुतिरूपा अष्टप्रवचन मातरः ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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