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________________ * अष्टादश सर्ग ॥ २३॥ तासां शृङ्गारलावण्यरसभावलयान्वितम् । पश्यन्तः परम नृत्यं मुदा पिप्रियिरेऽमरा: ।।२१।। पुवराज इवातीव सुन्दरी निर्ययो व्रतम् । शकणामा प्रतीन्द्रोऽपि स्ववाहनमधिष्ठितः ॥२२॥ पितृमातृगुरुप्रख्या मान्याः सामानिका: सुराः । पुरोधोमन्थ्यमात्यनिमास्त्रायस्त्रिशनिर्जराः ॥२३॥ पीठमदंनसाहण्या देवाः . पारिषदायाः । प्रङ्गरक्षसमाना प्रात्मरक्षाख्या विवौकसः ।।२४।। कोटपालसमा देवा लोकपालसमाह्वयाः । सेना तुल्यान्यनोकानि पदात्यादीनि सप्तमा ॥२५|| पौरजानपदप्रख्यास्त्रिदशाश्च प्रकीर्णका: । अमरा अभियोग्यास्या दातफरोपमाः ॥२६।। प्रजाबाह्मसमाना गीर्वाणा: किल्विषिकाभिधाः । इति शकपरीवाराः स्वस्ववाहन माश्रिताः ।।२७।। धर्मक रसिकाः सर्वे स्वस्वभूत्युपलक्षिसाः । सफलत्राश्च कल्पेशं वजन्तमनुवबजुः ॥२८।। स्वस्ववानमारूढाः सर्वाभरणभूषिताः ।साद्ध स्वपरीवारैः शचीभिश्चामनिजः ॥२६।। सोत्सवा जिनपूजाय सर्वे कल्पाधिपाः समम् । ऐशानप्रमुखा भक्त्या निर्जग्मुस्तेन तरक्षणम् ।।३०।। सिंहासनादिचिह्न: स्वात्वा केवलसंभवम् । सामराः सपरीवाराः सकलत्राः सवाहनाः ।।३१।। दिव्यभूषादिदीप्ताङ्गा ज्योतिष्का: पञ्चधा सुराः । निर्ययुः परया भक्त्या कैवल्यपूजनोद्यताः ।।३२।। नर्तकियां बिजलियों के समान पृथक पृथक नृत्य कर रही थीं ॥२०॥ उन नतंकियों के शृङ्गार सौन्वर्य रस भाव और लय से सहित उत्कृष्ट नृत्य को देखते हुए देव हर्ष से प्रसन्न हो रहे थे ॥२१॥ . . युवराज के समान अत्यन्त सुन्दर प्रतीन्द्र भी अपने वाहन पर बैठ कर इन्द्र के साथ शीघ्र ही बाहर निकला ॥२२॥ पिता माता और गुरु के समान माननीय सामानिक बेब, पुरोहित मंत्री और अमात्यों के समान प्रास्त्रिश देव, पीठमई के समान पारिषद देव, प्रङ्गरक्षकों के समान प्रात्मरक्ष वेव, कोटपाल के समान लोकपालदेव, सेना के तुल्य पदाति आदि सात प्रकार के मनीक जातीय देव, नगरवासी तथा देशवासी के समान प्रकीर्णक देव, दासों के समान प्राभियोग्य जाति के देव, और प्रजा से बाह्य-चाण्डालाविक के समान किल्बिषिक नामक देव, ये सब इन्द्र के परिवार के देव अपने अपने वाहनों पर सवार होकर सौधर्मेन्द्र के पीछे पीछे चल रहे थे। ये वेव भी धर्म के प्रमुख रसिक थे, अपनी अपनी विभूतियों से सहित थे तथा देवाङ्गनाओं से युक्त थे ॥२३-२८॥ जो अपने अपने वाहनों पर प्रारुढ थे, समस्त प्राभूषणों से विभूषित थे, अपने परिवारों, इन्द्राणियों तथा देवों से सहित थे, तथा उत्सव से युक्त थे ऐसे ऐशानेन्द्र प्रादि समस्त इन्द्र भक्तिपूर्वक जिन पूजा के लिये उस समय सौधर्मेन्द्र के साथ निकले ॥२६-३०॥ जो देवों से सहित हैं, परिधारों से युक्त हैं, देवाङ्गनामों से परिवृत हैं, अपने अपने वाहनों पर प्रारूत हैं तथा दिव्य प्राभूषणों से जिनके शरीर देदीप्यमान हैं ऐसे पांच प्रकार के ज्योतिषी देव सिंहासन आदि --
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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