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________________ * एकोनविंशतितम सर्ग * [ २५७ त्वं देवो जगदीश्वराचितपदस्त्वं धर्मराजा पर स्त्वं लोकत्रयतारणार्थचतुरस्त्वं विश्वबन्धूपमः । त्वं कालत्रयतस्वसूचनपरस्त्वं माथ निथराट् त्वं कर्मारिविनाशकृज्जिनपते त्वं सच्छियं देहि मे ॥१२॥ हति भट्टारक :श्रीसकलकोतिविरचिते पार्श्वनाथचरित्रे गणघराप्रच्छावर्णनो नामकोनविंशतितमः सर्गः ।।१६।। हो ! सावधान चित्त से सका धर्म करो ॥१०॥ हे नाथ ! तीनों नगर के ईश्वरों के द्वारा जिनके चरण पूजित हैं ऐसे पापही देव हैं, पाप हो उस्कृष्ट धर्मराजा हैं, प्राप ही तीनों लोकों को तारने में चतुर है, पापही सबके बन्धु समान हैं, पापही सीन काल सम्बन्धी तत्त्व को सूचित करने में तत्पर हैं, पापही निग्रंथराज है, तथा प्रापही कर्मरूपी शोका नामा करने वाले हैं प्रतः हे जिनेन्द्र ! प्राप मुझे उत्तम लक्ष्मी अनन्तचतुष्टयरूप लक्ष्मी प्रदान करें ॥१०२।। इस प्रकार भट्टारक भोसकलकोसि विरचित पाश्वमाषचरित में गणपर कृत प्रश्नों का वर्णन करने वाला उन्नीसर्वा सर्ग समाप्त हुमा ॥१९॥
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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