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________________ * प्रथम सर्ग * अन्ये ये जिनसे नाचार्यादयः कवयोऽखिलाः । वन्दित्तास्ते स्तुताः सन्तु कवित्वादिसिद्धये ।। ३३ ।। भूलोत्तरगुणः पूर्णान् द्विधा' सङ्गविवज्जितान् । समस्ताङ्गिहितोद्य तात् निग्रन्थान् गुणवारिधीन्। ३४। स्मराममृगसिंहाभान् गुरून् मुक्तिपथोद्यतान् । सार्द्धद्वीपट्टयोत्पन्नांस्तद्गुणाय स्तुवेऽनिशम् ।। ३५ ।। मङ्गलार्थ नमस्कृत्य जिनेन्द्रश्रुतसागरान् । स्वान्ययोरुपकाराय स्वशक्त्यातिसमासस: ।। ३६ ।। श्रीमसः पार्श्वनाथस्य सर्वानिष्टविनाशिनः । चरित्रं पावनं वक्ष्ये यथाम्नायं शुभाकरम् ।। ३७ ।। यदुक्तं प्राक्तनाचार्यः कृत्स्नसिद्धान्तपारगैः । कथं तद् भाषितु शक्यं स्वल्पमेधादिना मया ।।३।। तथापि तत्पदाम्भोजप्रणामाजितपुण्यतः । स्तोकसारं करिष्यामि तच्चरित्र मनोहरम् ॥३६।। कथा प्रारम्भः अथ द्वीपोऽस्ति विस्थातो जम्बूवृक्षेण भूषितः । लमयोजन विस्तीर्णो जम्बूनाम्ना महान् शुभः ॥४०।। सुमेरु'- समुकुटश्चैत्यालय - कुण्डलमण्डितः । नदोहारोद्धराकायः कुलाद्रिभुजभृत्तमः ।। ४१ ।। कविराज की भक्तिभाव से वन्दना करता है ॥ ३२ ॥ जिनसेनाचार्य को प्रादि लेकर जो अन्य समस्त कवि हैं वे मेरे द्वारा वन्दित और स्तुत्य होते हुए मेरे कविस्व प्रावि गुरगों की सिद्धि के लिए हों ॥ ३३ ॥ जो मूल और उत्तर गुणों से परिपूर्ण हैं, अन्तरङ्ग बहिरङ्गदोनों प्रकार के परिग्रहों से रहित है, समस्त जीवों के हित करने में उद्यत है निन्थ हैं, गुरणों के सागर हैं, काम तथा इन्द्रिय रूपी मृगों को नष्ट करने के लिये सिंह के समान हैं, मुक्ति के मार्ग में उद्यत हैं तथा अढ़ाई द्वीपों में उत्पन्न हुए हैं ऐसे समस्त गुरुपों को मैं उनके गुणों की प्राप्ति करने के लिए निरन्तर स्तुति करता हूँ ॥३४-३५॥ इस प्रकार मङ्गल के उद्देश्य को जिनेन्द्र देव तथा शास्त्रों के सागर स्वरूप गणधर देवों को निज और पर के उपकार के लिये अपनी शक्ति के अनुसार नमस्कार कर अत्यन्त संक्षेप से सर्व अरिष्ट निबारक श्रीमान् पार्श्वनाथ भगवान का वह पवित्र चरित्र कहूँगा जो अाम्नाय के अनुसार है तथा सब प्रकार के कल्याणों की खानरूप है ।।३६-३७।। समस्त सिद्धान्तों के पारगामी पूर्व प्राचार्यों के द्वारा जो चरित्र कहा गया है वह अत्यन्त अल्पबुद्धि के धारक मेरे द्वारा कैसे कहा जा सकता है ? ॥३८॥ तो भी उनके चरण कमलों को नमस्कार करने से ही संचित पुण्य के प्रभाव से मैं अल्पसार से मुक्त उनके मनोहर चरित्र को करूंगा ।।३६॥ कथा प्रारम्भ तदनन्तर जम्बूवृक्ष से सहित, एक लाख योजन विस्तृत, जम्बूद्वीप नाम का एक महान शुभ प्रख्यात देश है ॥४०॥ सुमेरु पर्वत हो जिसका मुकुट है, जो चैत्यालय रूपी १. बाह्याभ्यन्तरभेदान २. पल्पसार ३. सुमेरूपमुकुट महितः ४. चैत्याल गरूप कृण्डल विशोभिः । ...- -- -- - ---- --
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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