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* श्री पार्श्वनाथ चरितम् * कल्पपादपसत्पादो भोगभूभोगभूषितः । लवणाम्बुधिसद्वस्त्रो ह्रदनाभिवृषाकरः ॥ ४२ ॥ खगभूपामरः सेव्यो देवीभिश्च सुखार्णवः । अनेकापचयसंयुक्तो महापुरुष भृतः ।।४३ ॥ विश्वातिशयसपूर्णो जम्बूद्वीपी विराजितः । मध्येऽसंख्यद्वीपानां यथा चक्री हि भूभुजाम् ॥४४।। सुदर्शनाभिधो मेरुस्तन्मध्ये भाति सुन्दरः । लक्षकयोजनोतुङ्गो जिनालयविभूषितः ।। ४५ ।। मेरोदक्षिण दिग्भागे भारतं क्षेत्रमुत्तमम् । सुधामिकजनैः पूर्ण बमो धर्माकरं परम् ।। ४६ ।। विस्तीर्ण योजनानां पञ्चशतैः षटकलाधिकैः। षविशतियुतस्तस्याच्चापाकारं मनोहरम् ।।४।। गङ्गा-सिन्धु-नदीम्यां च विजयानाति सुन्दरम् । षट्खण्डोभूतमाभाति तदार्यम्लेच्छसंकुलम् ।।४८|| पूर्वापरमहान द्यो रजताद्रिसमुद्रयोः । मध्ये धर्माकरं सारमार्यखण्डं विशोभते ।। ४६ ।। यत्रार्या व्रतमादाय काराति तपोऽसिना । हत्वा यान्ति च निर्वाणं केचिद् ग्रेवेयक दिवम् ।।५०॥ पात्रदानेन केचिच्च भोग भूमि सुखावनिम् । केचिदिन्द्रादिभूति च लभन्ते जिनपूजया ॥ ५१ ।। कुण्डलों से मण्डित है, जिसका शरीर नदीरूपी हार से उन्नत है, जो कुलाचल रूपी भुजानों को धारण करने वाला है, कल्पवृक्ष हो जिसके उत्तम चरण हैं, जो भोगभूमि के भोगों से विभूषित है, लवरण समुद्र ही जिसका उत्तम वस्त्र है, पद्म प्रादि सरोवर जिसकी नाभि है, जो धर्म की खान है, विद्याधर, राजा तथा देव और देवियों से सेवनीय है, सुखों का सागर है, अनेक प्राश्चर्यों से संयुक्त है, महापुरुषों से परिपूर्ण है और समस्त अतिशयों से युक्त है ऐसा जम्बूद्वीप प्रसंख्यात द्वीपों के मध्य में ऐसा सुशोभित हो रहा है जैसा राजाओं के बीच में चक्रवर्ती सुशोभित होता है ।।४१-४४॥ उस जम्बूद्वीप के मध्य में एक लाख योजन ऊचा तथा जिनालयों-प्रकृत्रिम सोलह चैत्यालयों से विभूषित सुदर्शन नाम का सुन्दर मेरु सुशोभित हो रहा है ॥४४॥ मेरु पर्वत के दक्षिण दिग्भाग में भरत नामका उसम क्षेत्र सुशोभित है। यह क्षेत्र अत्यन्त धार्मिक जनों से परिपूर्ण है तथा धर्म की उत्कृष्ट खान है ॥४६।। छह कला अधिक पांच सौ छब्बीस योजन विस्तृत है, धनुष के प्राकार है, मनोहर है, गङ्गा सिन्धु नदियों और विजयार्ध पर्वत के कारण उसके छह खण्ड हो गये हैं । उन खण्डों से वह अत्यन्त सुन्दर जान पड़ता है तथा एक आर्य और पांच म्लेच्छ खण्डों से युक्त है ।।४७-४८।। पूर्व पश्चिम महा नदियों तथा विजयाधं और समुद्र के बीच में धर्म की खान स्वरूप श्रेष्ठ प्रार्य खण्ड सुशोभित हो रहा है ।।४६॥ जिस प्रायं खण्ड में कितने ही आर्य पुरुष व्रत ग्रहण कर तपरूपो तलवार से कर्मरूपी शत्रुनों का धात कर निर्धारण को प्राप्त होते हैं और कितने ही नौ ग्रेवेयक तथा सोलह स्वर्गों में जाते हैं ।।५०॥ कोई पात्रदान के द्वारा सुख की खानस्वरूप भोगभूमि को प्राप्त होते हैं
१. धर्मखनिः।