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________________ * अष्टम सर्ग . [ १०१ दन्तनख महातीक्ष्णमुंखेनातिकदर्थनः कृत्स्नदुःखाकर नानाविधं कातरभीतिदम् ।।१०७11 स पापी दुःसहं घोरं चोपसर्ग व्यवान्मुनेः । भक्षणस्ताउनः छेदनभेदनादिकर्मभिः ॥१०८।। एतस्मिन्नन्तरे दत्त स्वचित्त क्लेशदूरगम् । बिनपादाम्बुजे तेन निश्चलं मुनिना द्रुतम् ।।१०।। मनोजयेन सिंहेन पीडधमानोऽपि घोरधीः । न वेत्ति तस्कृतां बाघा बह्वीं ध्यानस्थमानसः ।११०। प्रतोऽसौ निर्भयो धीमान् जित्वाखिलपरीषहान् । मेरुशृङ्गनिभः सोऽस्थादामृत्यन्तं शुभाशयः ।।१११।। कायाम्मनः पृथक् कृत्वा संवेगादिगुणाङ्कितम् । साहित्वा तद्भवो वाधां स्वाराध्याराधनाः शुभाः।११२ विधिनोत्कृष्टधर्म्यध्यानेन स्वकाग्रचेतसा । समस्तातिप्रयत्नेन त्यक्त्वा प्राणान् शुभादयात् ११३। इन्द्रो महद्धिकः सोऽभूत्कल्पे हानतनामनि । विमाने प्राणतास्येऽतिशमंदे मुनिनायक: ।।११४।। मुनिहत्याजपापोधभारेणातिप्रपीडितः ।रौद्रध्यानेन मृत्वा पपात सिहोऽतिदुःकरे ।।११।। घूमप्रभाभिधे श्वधे दुस्सहे विषमेऽणुभे । सर्वदुःखाकरीभूते पापिस स्वकुल पृहे ! कुलापदे ११६। क्रोध प्राप्त कर तीक्ष्ण दादों से उन मुनि का कण्ठ पकड़ लिया ॥१०६॥ उस पापी ने अत्यन्त तीक्ष्ण तथा अत्यधिक दुःख देने वाले दांतों से, नखों से, भक्षण से, ताडन से तथा छेदन भेदन प्रादि कार्यों से उन मुनिराज पर ऐसा घोर उपसर्ग किया जो समस्त दुःखों की खान था, नाना प्रकार का था, कायर मनुष्यों को भय देने वाला था, तथा दुःसह दुःख से सहन करने योग्य पा ॥१०७-१०८। इस बीच में मुनिराज ने क्लेशों से दूर रहने वाला अपना निश्चल चित्त शीघ्र हो जिनेन्द्र भगवान के चरण कमलों में संलग्न कर लिया ॥१०६॥ जिनकी बुद्धि प्रत्यन्त धीर थी तथा जिनका मन ध्यान में स्थिर था ऐसे धे मुनि मन को जीत लेने से सिंह के द्वारा पीडित होते हुए भी उसके द्वारा की हुई बहुत भारी बाधा का वेवन नहीं करते थे ॥११०।। यही कारण है कि निर्भय, बुद्धिमान तथा शुभ अभिप्राय बाले वे मुनिराज समस्त परिषहों को जीत कर मरणपर्यन्त के लिये मेह शिखर के समान निश्चल विराजमान हो गये ॥१११॥ संवेगावि गुणों से प्रति मन को शरीर से पृथक कर वे मुनिराज सिंह कृत बाधा को सहते रहे तथा शुभ प्राराधनाओं की माराधना कर अपने एकाग्रचित्त से विधि पूर्वक उत्कृष्ट धर्पध्यान के द्वारा समस्त प्रयत्नों से प्राणों का त्याग कर पुण्योदय से मानत नामक स्वर्ग के अतिशय सुखदायक प्राणत विमान में महान ऋड़ियों के धारक इन्द्र हुए ॥११२-११३-११४॥ मुनिहत्या से उत्पन्न पाप समूह के भार से प्रत्यन्त पीडित हुमा यह सिंह रौद्रध्यान से मर कर धूमप्रभा नामफ पांचवें नरक में जा पड़ा । वह नरक अत्यन्त दुरकर, दुःसह, विषम, प्रशुभ, समस्त दुःखों की खान तथा पापी जीवों का कुलगृह था ॥११५-११६॥
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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