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________________ y * पञ्चदश सर्ग [ KAT धर्मो नरकपातालान रानुद्धरितु क्षमः । तथा स्थापयितुं शक्रराज्येऽनन्तसुखेऽथवा ।। १२६ ।। धर्मोमुत्र सुपाथेयं सहगामी वृषोऽङ्गनाम् । सर्वत्र व्यसने बन्धुर्धर्मः पापारिनाशकृत् ।। १२७ ।। मुक्तिश्रीः स्वयमासक्ता याति धर्मात्सुर्षार्मणः । स्वभार्येव द्रुतं लोके का कथा परसच्छियः १२८॥ ये कुर्वन्ति सदा धर्मं दृचिह्न सं क्षमादिभिः । तेषां कि दुर्लभं लोकत्रये सौख्यं च सत्पदम् । १२६ । भासते सफलं तेषां जन्मायुर्ये निरन्तरम् । सर्वशक्त्या भजन्त्येकं धर्मं यत्नेन मुक्तये ।। १३० ।। बिना धर्मेण लोकानां मानुष्यं दुर्लभं वृथा । सत्कुलं च मतिर्यस्मात् तत्स्याच्छ्वभ्रस्य कारणम् । जीवन्तोऽपि मृता ज्ञेया मानवा धर्मबर्जिताः । धर्मवन्तोऽमृता नूनमहामुत्र च जीविताः ।। १३२ ।। विज्ञायेति न नेतृव्य का कालकला क्वचित् । विना धर्मेण संप्राप्यं मानुष्यं दुर्लभं जनैः ।। १३३ ।। शाहू विक्रीडितम् धर्मो विश्वसुखप्रदोऽहतको धर्मं व्यधुर्षार्मिका, धर्मेण विलभ्यते शिवपदं धर्माय मूर्ध्ना नमः । चाहिये ।।१२४ - १२५।। धर्म, मनुष्यों को नरकरूपी पाताल से निकालने तथा इन्द्र का राज्य अथवा अनन्त सुख -मोक्ष में स्थापित करने के लिये समर्थ है ।। १२६ ।। धर्म, परलोक के लिये उत्तम पाथेय-संबल है, धर्म प्राणियों के साथ जाने वाला है, धर्म सभी संकटों में बन्धु है और धर्म पापरूपी शत्रु को नष्ट करने वाला है || १२७॥ धर्म से जब मुक्तिरूपी लक्ष्मी स्वयं श्रासक्त होकर अपनी स्त्री के समान शीघ्र ही समीप श्रा जाती है तब प्रत्य afक्ष्यों की क्या कथा है ? ।।१२८ ।। जो मनुष्य सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तथा क्षमा आदि के द्वारा सदा धर्म करते हैं उनके लिये तीनों लोकों में कौन सुख और कौन उसम पद दुर्लभ है ? अर्थात् कोई भी नहीं ।। १२६ ॥ उन्हीं का जन्म और जीवन सफल मात्रम होता है जो संपूर्ण शक्ति से मुक्ति के लिये निरन्तर एक धर्म की उपासना करते हैं । १३० धर्म के बिना लोगों का दुर्लभ मनुष्य भव, उत्तम फुल और उत्तम बुद्धि व्यर्थ है क्योंकि उसके बिना यह सब नरक का कारण है ।।१३१ || धर्म से रहित मनुष्य जीवित रहते हुए भी मृत है और धर्म सहित मनुष्य मर कर भी इस लोक तथा परलोक में जीवित है ऐसा जानना चाहिये ।। १३२ ।। ऐसा जानकर तथा दुर्लभ मनुष्य पर्याय प्राप्त कर मनुष्यों को धर्म के बिना कहीं काल की एक कला भी नहीं व्यतीत करना चाहिये ।। १३३ ।। धर्म समस्त सुखों को देने वाला तथा पापों का नाश करने वाला है, धार्मिकजन धर्म करते हैं, धर्म के द्वारा शीघ्र ही मोक्षपद प्राप्त होता है, धर्म के लिये शिर से नमस्कार हो, धर्म से भिन्न दूसरा हितकारी पिता नहीं है, धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है, मैं प्रतिदिन
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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