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________________ १९८] • श्री पार्श्वनाथ चरित . इत्यादि बोधिमासाद्य समाधिमरणे बुधैः । महायनो विधातव्यो येन सा सफला भवेत् १११६। प्राप्य बोधि प्रमादं ये तद्रक्षादौ च कुर्वते । समाधिमरणे तेऽघाद्भवारण्ये प्रमन्त्य हो ।।१२०॥ इति मत्वा जन : कार्यो बोधिरक्षाविधौ महान् । यत्नश्चोत्तममृत्यवादों प्रमादेन विनानिशम् १२१ शालविक्रीडितम् संसारेऽत्र च दुःख राशिधिकटे नृत्वं कुलं चोत्तम स्वायुः कायमनामयं खसकल सारं विवेक वृषम् । चिन्तारत्नमिवातिदुर्लभतरं दक्ष मनोहश्रुतं बुद्ध्वेत्याशु जना यतध्वमनिशं धर्मे च रत्नत्रये ।।१२२।। बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा भवाब्धी पतनाच्छीघ य उद्ध त्याङ्गिनः शुभे । स्थापयत्यचलस्थाने तं धर्म विद्धि तत्त्वतः ।।१५३।। उत्तमादौ क्षमा मार्दवमार्जवं सुसत्यवाक् । शौचं संयम एवानुतरस्त्यागस्तयोत्तमः ।।१२४।। आकिञ्चन्यं महब्रह्मचर्य चेति दशात्मकः । धर्मः साध्योऽप्य मीभिः सल्लक्षणदेशभिर्बुधः १२५॥ होना जीवन पर्यन्त प्रत्यन्त दुर्लभ रहता है। भावार्थ-बोधि के प्राप्त होने पर भी यथाविधि समाधिमरण का प्राप्त होना कठिन है ।।११८॥ इत्यादि रूप से बोधि को प्राप्त कर ज्ञानी जीवों को समाधिमरण के विषय महान् यत्न करना चाहिये जिससे वह बोधि सफल हो सके ||११६॥ जो मनुष्य बोधि को प्राप्त कर उसकी रक्षा प्रावि करने तथा समाधिमरण में प्रमाव करते हैं वे पाप से संसार सागर में भ्रमण करते हैं ।।१२०।। ऐसा जानकर मनुष्यों को बोधि की रक्षा तथा उत्तम समाधिमरण प्रादि में प्रमाद रहित होकर निरन्तर प्रयत्न करना चाहिये ॥१२१॥ दुःखसमूह से परिपूर्ण इस संसार में मनुष्यभव, उत्तमकुल, दीर्घ प्रायु, नोरोग शरीर, इन्द्रियों की पूर्णता, श्रेष्ठ विवेक, धर्म, समर्थ मन, सम्यक्त्व और सम्यग्ज्ञान ये सब चिन्तामणि के समान अत्यन्त दुर्लभ हैं ऐसा जानकर हे ज्ञानीजन हो ! धर्म तथा रत्नत्रय के विषय में शीघ्र ही निरन्तर प्रयत्न करो ॥१२२॥ ( इस प्रकार बोधिदुर्लभभावना का चिन्तन किया ) ___ जो संसाररूपी सागर में पतन से निकाल कर जीवों को शीघ्र ही शुभ और अविनाशी स्थान में स्थापित कर दे उसे परमार्थ से धर्म जानो ।।१२३।। सब से पहले विद्वानों को उत्तमक्षमा, मार्दय, प्रार्जव, सत्यवचन, शौच, संयम, तप, उत्तमत्याग, प्राकिञ्चन्य और महान ब्रह्मचर्य यह दशरूप धर्म, इन उत्तम क्षमा प्रावि दश लक्षणों के द्वारा सिद्ध करना 1. निरन्तरम् ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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