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* पञ्चदश सर्ग *
[ १९७ पुण्यापुण्यगृहं जिनेन्द्रगदितं ज्ञात्वेह लोकत्रयं हत्वा रागमनारतं सुतपसा मोक्षं भजवं बुधाः ।।११।।
लोकानुप्रेक्षा मानुष्यं दुर्लभं विद्धपत्रानन्ते भवसागरे । चिन्तारत्नमिवान्धौ दुःकर्मारिक्शवर्तिनाम् ॥११२१ तत्प्राप्तेऽस्यतिदुःप्राप्यमार्यखाई वृषाकरम् । कञ्चिद्धि तदाप्तेऽतिदुर्लभं कुलमुत्तमम् ।।११३॥ तल्लब्धेऽप्यङ्गिनामायुर्न दीर्घ सुलभं क्वचित् । दीर्घायुषामपि न णां मति: साध्वी 'खपूर्णता ।। कपायहीनता धर्मे बुद्धिदहनिरोगता । देवगु दिसामग्री मणिवत्सुष्ठदुर्लभा ।।११।। लब्धेष्वेतेषु मुञ्चन्ति मिथ्यात्वं ये न निःफला । सामग्री साविला तेषां धर्महीना यथा मतिः । ११६ । तत्यागेऽपि श्रुतं वृत्त तपश्चात्यन्तदुर्लभम् । निःपापाचरणं पुसा भवेकल्पद्रुमोपमम् ।।११७।। इत्यादि बोधिलब्धानां समाधिमरणं महत् । निधानं वानघाचारं यावज्जी सुदुर्लभम् ।।११।। प्रादि की खान है, नित्य है, जिनेन्द्रदेव के दृष्टिगोचर है-केवलज्ञान का विषय है, नियत असंख्यात प्रदेश वाला है, तथा पुण्य और पाप का घर है ऐसे जिनेन्द्र कथित तीनों लोकों को जानकर हे बुधजन हो ! राग को नष्टकर निरन्तर तप के द्वारा मोक्ष की प्राराधना करो ॥११॥
( इस प्रकार लोकानुप्रेक्षा का चिन्तन किया ) दुष्ट कर्मरूपी शत्रुओं के वश में रहने वाले जीवों को इस प्रनन्त संसार सागर में मनुष्य पर्याय उसी प्रकार दुर्लभ है जिस प्रकार कि समुद्र में चिन्तामणि दुर्लभ होता है ॥११२॥ उस मनुष्य पर्याय के प्राप्त होने पर भी धर्म की खान स्वरूप आर्य खण्ड का मिलना कठिन है। कथंचित् प्रायखण्ड के मिलने पर भी उत्तम कुल का मिलना अत्यन्त कठिन है ।।११३॥ कदाचित् वह भी मिल जाय तो वीर्घ आयु का मिलना सुलभ नहीं है तथा दीर्घ प्रायु मिलने पर भी मनुष्यों की उत्तम बुद्धि, इन्द्रियों को पूर्णता, कषाय को हीनता, धर्म की बुद्धि, शरीर को नोरोगता और देव गुरु प्रादि की सामग्री का मिलना मरिण के समान अत्यन्त दुर्लभ है ।।११४-११५।। इन सबके मिलने पर भी जो मनुष्य मिथ्यात्व को नहीं छोड़ते हैं उनको यह समस्त सामग्री उस प्रकार निष्फल है जिस प्रकार कि धर्म से रहित बुद्धि निष्फल होती है ॥११६॥ मिथ्यात्व का त्याग होने पर भी सम्यरज्ञान, सम्यक चारित्र और मम्यक् तप अत्यन्त दुर्लभ है । वास्तव में पाप रहित पाचरण मनुष्यों के लिये कल्पवृक्ष के समान है ।।११७।। इत्यादि रूप से बोधि को प्राप्त हुए मनुष्यो को बडे भारी निधान के समान निर्दोष आचरण से युक्त समाधिमरण का प्राप्त
२ इन्द्रियोता