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________________ - - - - - १९६ ] • श्री पार्श्वनाथ चरित - चतुरशीतिलशास्त्रयोविंशतियुप्ता दिवि । त्रिसहस्रोनलक्षश्च विमानाः सन्ति चालिला: १. २ अनेकरिसमायुक्ता बिनधामविभूषिताः । विश्वशर्माकरीभूताः कृत्स्नदुःस्वादिदूरगाः ।।१०३॥ रत्नत्रयतपोभूषा ज्ञानध्यानपरायणाः ।जिनभक्ताः सदाचारा यतशीलादिमण्डिताः । १०४ त्यक्तरागादिदोषौघा निष्पापा धर्मवासिताः । यान्ति स्वर्ग यथायोग्यं सदाचारा नरोत्तमाः ।१०५ ते सत्र विविधं शर्म दिन्यस्त्रीभिः समं सदा । भुजाना न गतं कालं जानन्ति पुण्यपाकतः ॥१०६ मोक्षास्यास्ति शिला लोकाने शुवस्फटिका शुभा । 'नरक्षेत्रसमा वृत्ता रुन्द्रा द्वादशयोजना ।।१०।। सवाष्टकमनिमुक्ता गुणाष्टकविभूषिताः । वन्द्या मया च भव्यानित्या: सिद्धा हि चिन्मयाः । भुजते प्रोत्तमं शर्म निरौपम्यसुखोद्भवम् । अनन्तं विषयातीतं स्वात्मजं शाश्वतं सदा ।।१०।। एवं लोकत्रयं ज्ञात्वा सुखदुःखादिसंकुले । वैराग्यिणो यतन्तेऽत्र मुक्तौ रत्नत्रयादिभिः । ११० शार्दूलविक्रीडितम् सर्वद्रव्यभृतं ह्यनादिनिधनं शर्मासुखाद्याकर नित्यं हग्विष जनस्य नियतासंस्यप्रदेशात्मकम् । कल्पना नहीं रहती है ॥१०॥ कयलोक के सब विमान चौरासी लाख सतानवे हजार तेईस हैं ॥१०२॥ ये सभी विमान अनेक ऋद्धियों से सहित हैं, जिन मन्दिरों से विभूषित है, समस्त सुखों की खान हैं तथा सब दुःख प्रावि से दूर हैं ।।१०३॥ जो रत्नत्रय तथा तपरूपी प्रासूषण से सहित हैं, ज्ञान ध्यान में तत्पर रहते हैं, जिनेन्द्र भगवान के भक्त हैं, सवाचारी हैं, व्रतशील प्रादि से अलंकृत हैं, जिन्होंने रागादि दोषों के समूह को छोड़ दिया है, जो पाप रहित हैं और धर्म की धासना से सहित हैं ऐसे समीचीन प्राचार विचार वाले उत्तम मनुष्य यथायोग्य स्वर्गों में जाते हैं ॥१०४-१०५॥ वे वहां पुण्योदय से देवाङ्गनाओं के साथ सवा सुख भोगते हुए गत काल को नहीं जानते । भावार्थ-निरन्तर सुख में निमग्न रहने से वे यह नहीं जानते कि हमारा कितना काल व्यतीत हो चुका है ।।१०६॥ लोक के अग्रभाग में सिद्धशिला है जो शुद्ध स्फटिक को है, शुभ है, मनुष्य क्षेत्र के बराबर पैंतालीस लाख योजन विस्तार वाली है, गोल है और बारह योजन मोटी है ॥१०७॥ वहां पाठ कर्मों से रहित, पाठ गुणों से विभूषित, मेरे तथा भव्यजनों के द्वारा बन्दनीय, नित्य तथा चिन्मूर्ति सिद्ध भगवान् सदा उस उत्तम सुख का उपभोग करते हैं जो निरुपम-निराकुल सुख से उत्पन्न है, अनन्त है, विषयों से रहित है, स्वकीय प्रात्मा से उन्मूत है और शाश्वत है ।।१०८-१०६॥ इस प्रकार तीनों लोकों को जानकर सुख दुःख से परिपूर्ण लोक में पैराग्य को धारण करने वाले मुनि रत्नत्रय प्रावि के द्वारा मुक्ति के लिये प्रयत्न करते हैं ॥११०॥ जो सब द्रव्यों से भरा हुआ है, अनादि निधन है, सुख दुःख । पञ्चचत्वारिंगधोजनविस्तृता २. निरौपम्य सुखोद्भवम् स. १० ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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