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* पञ्चदश सर्ग
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घर्मवजिताः । निन्दका देवधर्मादेस्ते यान्ति तासु भूमिषु ||१५|| कायजं महत् । भुञ्जते तत्र से पापात्कविवाचामगोचरम् ।। ६६ ।। लवणोदादयोऽब्धयः । श्रसंख्याता जिनैरुक्ता वलयाकारधारिणः ॥७ जिनागारादिमण्डिता: । ह्रदा नद्यादय: क्षेत्र भोगकर्मधरादयः ॥ ६८ ।। ह्यार्यम्लेच्छ्रजनं भृतः । क्वचिद्देवैश्च विज्ञेयः पुण्यपापादिकारणः ।। ६६ ।।
चैश्यागारयुतान्यपि । 'चन्द्रनग्रहनक्षत्रतारकाणां भवन्त्यहो ||१०० ।। सौधर्मादय एव च ग्रैवेयकादयः कल्पातीताः सर्वसुखाकराः । १०१ ।।
मिध्यात्ववासिता मूढाः पापिनो छेदनादिभवं दुःखं मानसं जम्बूद्वीपादयो बीपा मेर्वादिपर्वता ज्ञेया
इत्यादिमध्यलोकोऽस
असंख्येयविमानानि
स्वर्गाः षोडश विज्ञेयाः
से सहित हैं, मूर्ख हैं, पापी हैं, धर्म से रहित हैं, तथा देव और धर्म प्रादि के निन्दक हैं ये जीव उन भूमियों में जाते हैं ।।६५।। वहां वे पाप के कारण छेदन आदि से होने वाले faraनागोचर कायिक और मानसिक महान् दुःख भोगते हैं ।। ६६ ॥
मध्यमलोक में जिनेन्द्र भगवान् ने जम्बूद्वीप को प्रावि लेकर असंख्यात द्वीप और लवण समुद्र को प्रावि लेकर प्रसंख्यात समुद्र कहे हैं। ये द्वीप समुद्र चूडी के आकार एक दूसरे को घेरे हुए हैं ||७|| जिन चैत्यालयों से सुशोभित मेरु आदि पर्वत, सरोवर, नदी प्राडि, क्षेत्र, भोग भूमि कर्मभूमि आदि सब मध्यम लोक है । यह मध्यम लोक आर्य तथा म्लेच्छजनों से और कही देवों से भरा हुआ है तथा पुण्य पाप श्रादि का कारण है। भावार्थमध्यलोक के प्रढाई द्वीप में आर्य तथा म्लेच्छ मनुष्यों का अस्तित्व है और उसके आगे असंख्य द्वीप समुद्रों में देवों का निवास है । तिर्यञ्चों का निवास सर्वत्र है । कहीं कहीं अढाई द्वीप में भी व्यन्तर और भवनवासी देवों का निवास है ।६८-६६|| ग्रहो ! जिन चत्यालयों से युक्त चन्द्रमा सूर्य ग्रह नक्षत्र और तारों के असंख्यात विमान भी इसी मध्यमलोक में हैं । भावार्थ - मध्यलोक का विस्तार मेरु पर्वत के एक हजार योजन नीचे से लेकर मेरु पर्वत की चोटी तक माना गया है इसलिये ज्योतिषी देवों का निवास भी मध्यमलोक में ही है ऐसा जानना चाहिये ।। १०० ॥
ऊर्ध्वलोक में सौधर्म श्रादि सोलह स्वर्ग और प्रवेयक आदि कल्पातीत विमान जानना चाहिये । ये सभी विमान सब सुखों की खान हैं। भावार्थ- मेरु पर्वत की तुलिका के ऊपर एक बाल का अन्तर छोड़कर ऊर्ध्यलोक की सीमा शुरू होती है। सौधर्मादि सोलह स्वर्ग कल्प कहलाते हैं क्योंकि इनमें इन्द्र सामानिक श्रादि दश भेदों की कल्पना रहती है और उसके ऊपर नव प्रवेयक श्रादि कल्पातीत कहलाते हैं क्योंकि उनमें इन्द्रादिक मेवों की
१. चन्द्र भूग्रह |