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________________ *श्री पार्श्वनाथ चरित - जानाभयादिसदानं दस धोमानिरन्तम् । मुनीनां च सुपात्राणां स्वान्ययोहिंतकारणम् ।।६।। स्ववीयं प्रकटं कृत्वा द्वादशैव तपांसि स: । कर्मेन्धनेऽग्निसादृश्यान्यधासोराणि सिद्धये ॥१०॥ प्रसमाधिमतां साधूनां च प्रत्यूहसंस्थितैः । शुश्रूषागमदेशः साधुसमाधि सदाभजत् ।।१।। यतीनां त्यक्तसङ्गाना रोगादिपीडितात्मनाम् । करोति दशधा' वैयावृत्यं योगेन शर्मदम् ।। ८ ।। महंता तीर्थनाथानां ध्यामपूजास्तवादिभिः । अनन्यशरगोभूत्वा विदध्याक्तिमूजिताम् १८३।। पञ्चानारत शिष्यारामाशारोपवेशिता । प्रानार्याणां त्रिशुद्धघासो पत्ते भक्ति गुणाबनिम् ।८।। बहप्तवतां योगिनां ज्ञानाच्य वाहिनाम् । भक्ति दृढतरां सोऽधाद्विवपूर्वाङ्गदशिनीम् ।।८।। स्वर्गमुक्तिपचोंडोतिन्यमानध्वान्तनाशिनि । भक्ति प्रवचने मोऽधानि:शेषतत्त्वशिनि ।।८।। निन्दास्तुती हषस्वर्णे श्मशाने दिव्यधामनि । पल्यडू कण्टकामे पजीणि दिव्ययोषिति ८५ निरन्तर मुनि प्राति सुपात्रों के लिये स्वपर हित कारक ज्ञान तथा प्रभय आदि समीचीन दान घेते थे अर्थात् शक्तितस्त्याग भावना का चिन्तधन करते थे ॥७६।। वे सिद्धि प्राप्त करने के लिये प्रात्मशक्ति को प्रकट कर कर्मरूपी ईधन को जलाने के हेतु अग्नि को समा. नता रखने वाले बारह तप करते थे, अर्थात् शक्तितस्तप भावना का चिन्तवन करते थे ॥५०॥ विघ्न उपस्थित होने पर असमाधि युक्त साधुओं की सेवा तथा प्रागम के उपदेश के द्वारा सवा साधु समाथि को प्राप्त होते थे अर्थात् साधुनों को अच्छी तरह सेवा करते हुए साधु समाधि भावना का पालन करते थे ॥१॥ रोगादि से पीडित निनन्य साधुनों की सुखदायक दश प्रकार की यावृत्य मन वचन काय रूप योगों से किया करते थे अर्थात् बंगावृत्य भावना का चिन्तन करते थे ॥८२॥ अनन्यशरण होकर ध्यान पूजा तथा स्तवन प्रादि के द्वारा तीर्थ के नायक प्ररहन्त भगवान को प्रत्यधिक भक्ति करते थे अर्थात् महबूक्ति भावना का चितवन करते थे ।८३१ जो स्वयं पञ्याचार का पालन करते थे तथा शिष्यों को उनका उपदेश देते थे ऐसे प्राचार्यों की बे त्रिशुद्धि पूर्वक गुरषों की भूमिस्वरूप भक्ति करते थे अर्थात् प्राचार्य भक्ति भावना का पालन करते थे।८४। वे ज्ञानरूपी सागर में प्रवगाहन करने बाले बहुश्रुतवन्त साधुनों को समस्त पूर्व प्रौर प्रङ्गों को दिखलाने वाली प्रत्यात दृढ भक्ति करते थे अर्थात् बहुश्रुत भक्ति की भावना करते थे ॥८५।। जो स्वर्ग और मोक्ष के मार्ग को प्रकाशित करने वाला है, प्रज्ञानान्धकार को नष्ट करने वाला है तथा समरत तस्यों को विखलाने वाला है ऐसे प्रवचन में भक्ति धारण करते थे अर्थात् प्रवचन भक्ति भावना की साधना करते थे॥८६॥ प्रावश्यकापरिहारिण भावना के अन्तर्गत शान्त चित्त का १. पाचार्योपाध्यायनम्विक्ष्यालानगरकुलसंघम धुमनोज्ञानामनि दविषमुनाना भेदेन यादृत्य दशधा जायते । २. नागिनी ख० ३ दशनीय स्व.।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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