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________________ * अष्टम सर्ग. कायादौ त्यक्तभोहोऽपि सद्यः प्रसूतधेनुवत् । कृत्वा साधर्मिके स्नेहं कुर्यादात्सल्यमद्भुतम् ॥१६॥ प्रकटीकृत्य सीर्थेश शासनं मुक्तिकारणम् ।शानेन तपसा दध्यात्सखी मुक्त: प्रभावनाम् 11७०॥ एवं सोऽष्टविधरङ्गई ढीभूतं सुदर्शनम् ।चकार मुक्तिसोपानमाद्य कर्मारिहानये ॥७॥ तद्विपक्षा हि हदोषा अष्टौ शङ्कादयोऽशुभाः । ये सन्ति ताश्च सदृष्टिर्जातु स्वप्नेऽपि न स्पृशेव।७२ एवं सर्वान् 'मलांस्त्यक्त्वा पञ्चविंशति संख्यकान् । मूत्वदुर्मदादींश्च सम्यक्त्वमलदायिमः ॥७३॥ दर्शनस्य विशुदि स्वमनोकाक्कायचेष्टितैः । चकार महती मुक्त्यै तीर्थराजविभूतिवाम् ।।७४।। शानदर्शनचारित्रतपस्सु तात्मसु । सोऽकरोद्विनयं नित्यं विद्यादिगुणसागरम् ॥७॥ अष्टादशमहाशील सहस्राणां गुणात्मनाम् । सपोऽखिलवतादीनां नातीचारं व्यषालवचित्।।७६।। प्रगपूर्वाणि धीमान्सोऽभीषणमज्ञानहानये । केवलाय पठत्येव सतां पाठयति स्फुटम् ॥७७॥ देहभोगभवादी स सर्वत्रानिशमादधे । वैराग्यं रागमाहत्य 'स्वर्गमोक्षाध्वदर्शकम् ।।७।। प्राराधना करते थे ॥६६॥ यद्यपि वे शरीरावि में मोह का त्याग कर चुके थे तथापि समान धर्मी बन्धु में तत्काल प्रसूता गाय के समान स्नेह करते हुए अद्भुत वात्सल्य प्रङ्ग का पालन करते थे ॥६६॥ वे मुक्ति के कारणभूत जिनशासन को ज्ञान और तप के द्वारा प्रकट कर मुक्ति को सभी स्वरूप प्रभावना को धारण करते थे ॥७०। इस प्रकार के कर्मरूपी शत्रुनों का क्षय करने के लिये मुक्ति की प्रथम सीढ़ी स्वरूप सम्यग्दर्शन को हड करते थे ।।७।। सम्यम्बर्शन के विरोधी ओ शङ्का प्रादिक पाठ दोष हैं सम्यग्दृष्टि मुनिराज स्वप्न में भी उनका स्पर्श नहीं करते थे ॥७२॥ इस प्रकार वे सम्यग्दर्शन में मल उत्पन्न करने वाले मूढता तया दुष्टमा प्रादि समस्त पच्चीस दोषों का त्याग कर अपने मन वचन काय की चेष्टामों द्वारा तीथंकर की महान विभूति को देने वाली दर्शन विशुद्धि नामक महाभावना की मुक्ति प्राप्त करने के लिये सबा भावना करते थे ॥७३-७४।। वेशान, वर्शन, चारित्र तप और इनके धारक जीवों में विद्या प्रादि गुणों के सागर स्वरूप विनय को नित्य करते थे॥७५।। वे सोल के अठारह हमार भेदों तथा समस्त व्रताबिक गुरगों में कहीं भी प्रतिबार नहीं लगाते थे। अर्थात् शीलवतेष्वनतिचार नामक भावना का चिन्तवन करते थे ॥७६।। वे बुद्धिमान मुनिराज मात्र प्रज्ञान की हानि के लिये निरन्तर प्रङ्ग और पूर्वो का स्वयं पाठ करते थे और दूसरों को स्पष्ट रूप से पाठ कराते थे। भावार्थ-वे प्रभीक्षण शानोपयोग भावना का चिन्तवन करते थे ।।७।। के सर्वत्र राग को नष्ट कर शरीर भोग तपा संसार मावि के विषय में निरन्तर स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग दिखाने वाला वैराग्यभाव धारण करते थे प्रति संवेग भावना का जिम्तवन करते थे ॥७८।। वे बुद्धिमान मुनिराज १. दोषात २. स्वगंमोक्षपयप्रदयम् ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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