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अष्टावश सर्ग 2
[ २४१ पस्यां पूर्वोक्तमानानि गोपुरारिण भवन्ति च । प्रामुक्ततोरणादीनि माङ्गल्यद्रव्यसंपदः ॥१२४।। प्रथोल्लच प्रतोली तां वीभ्यभूपरितः परा । नानाप्रासादपंक्तिश्च सुरशिल्पिविनिर्मिता ।।१२।। तप्तधामीकरस्तम्भा वचाधिष्ठानबन्धना: । चन्द्रकान्तमहारत्नभित्तयो रश्मिसंकुला: ।।१२६॥ सुहा द्वितलाः केचित् त्रिचतुर्भूमिकाः परे । चन्द्रशालयुताः केचिदलभिच्छन्दभूषिताः ।।१२७॥ से प्रासादा विराजन्ते स्वदीप्तिमग्नमूर्तयः । रत्नकूटैश्च रम्यौघेज्योत्स्नाभिनिर्मिता इव ।१२८) कुटागारस भागेहप्रेक्ष्यशाला बभुः क्वचित् । सशय्याः सासनास्तुङ्गसोपानाः सुमनोहराः ।।१२।। पन्नगा: किन्नरा देवाचारमन्त खगाधिपाः । गानेषु केचिदासक्ताः केचिट्ठादित्रदादनः ।।१३०॥ वीथीनां मध्यदेशेऽपि नवस्तूपाः समुद्ययुः । पद्मरागमयास्तुङ्गा छत्रध्वजविभूषिताः ॥१३१।। सिद्धार्हत्प्रतिबिम्बोधनिचिता' दिव्यमूर्तयः । तेजः पुजा इवाभान्ति ते सर्वे मङ्गलधिया ।।१३२॥ गोपुरों से संयुक्त है ॥१२३॥ इस वन बेदिका में पहले कहे हुए प्रमाण से युक्त गोपुर, पूर्वोक्त तोरण प्रादि तथा मङ्गलद्रव्यरूप संपदाएं होती हैं ॥१२४।।
तदनन्तर उस प्रतोली को उल्लंघकर अर्थात् गोपुरों से प्रागे चल कर उस्कृष्ट बीपी है और उस वीथी के दोनों प्रोर नाना प्रकार के भवनों को वह पंक्ति है जो देवरूप कारीगरों के द्वारा निर्मित है, तपाये हुए सुवर्णमय खम्भों से सहित है, बञमय नींव से युक्त है। चन्द्रकान्त मरिण निमित दीवालों से सुशोभित है और किरणों से व्याप्त है ॥१२५-१२६॥ उस प्रासादपंक्ति में कोई भवन दो खण्ड के हैं कोई तीन चार खण्ड के हैं, कोई चन्द्रशालानोंउपरितनछतों से युक्त हैं और कोई अट्टालिकाओं तथा छन्दगृहों से विभूषित हैं ॥१२७॥ जिनकी प्राकृति अपनी ही बीप्ति में निमग्न हो रही है ऐसे वे भवन, रत्नमय शिखरों पोर किरणों के समूह से ऐसे सुशोभित होते हैं मानों चांदनी के द्वारा ही बनाये गये हों।१२। कहीं शय्यानों से सहित, प्रासनों से सहित, ऊची सीढ़ियों से सहित तथा अत्यन्त मनोहर कूटागार, भूलभुलया वाले महल, सभागृह और प्रेक्ष्यगृह-प्रजायबघर सुशोभित हो रहे हैं ॥१२६॥ उन भवनों में नागकुमार तथा किन्नर जाति के वेव और विद्याधर क्रीडा करते है। क्रीडा करने वाले देव और विद्याधरों में कोई गाने में प्रासक्त है तथा कोई बाजों के बजाने में संलग्न हैं ।।१३०॥
वीथियोंगलियों के बीच में नव स्तूप भी खड़े हुए हैं जो पनराग मरिणयों से निमित हैं, चे हैं, छत्र और ध्वजानों से विभूषित हैं, सिद्ध तथा प्रहन्त भगवान की प्रांतमात्रों के समूह से व्याप्त हैं, मनोहर प्राकृति वाले है और मङ्गलबध्यरूपी संपदा से ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानों तेज के पुञ्ज ही हों ॥१३१-१३२।। उन स्तूपों पर जो जिनेन्द्र १. प्रतिनिम्बोच्च ख.