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________________ २४२ ] .श्री पार्श्वनाथ चरित - जिनेन्द्रप्रतिमास्तेष्वभिषिच्याभ्यर्च्य भक्तितः । स्तुत्वा प्रदक्षिगीकृत्यार्जयन्ति विबुधा: शुभम् ।१३३ स्तूपहावलीरुद्धां घरामुल्लङ्घध तां ततः । नभःस्फटिक शालोऽभूत् शुद्धस्फाटिकरत्नजः।।१३४।। दिक्ष झालोत्तमस्यास्य वृत्तस्य गोपुराण्यपि । पद्मरागमयान्युश्चच्छ्रितानि बस्तराम् ।।१३।। प्रचापि पूर्ववज्ज्ञेया मङ्गलद्रव्य संपद: । द्वारोपान्ते च दातारो निधयोभोगमञ्जसा ।।१३६। छत्रचामरतालध्वजादर्शसुप्रतिष्ठकाः । भृङ्गारकलशा एते भवन्ति प्रतिगोपुरम् ।।१३७।। गोपुरेषु सुरास्तेष्वासन् गदादिकङ्किता: । क्रमाच्छालत्रयेद्वाःस्था भीम भावनकरूपमाः।।१८।। सतः स्फाटिकशालाग्राज्जिनपीठान्समायताः । भित्तयः षोड़शाभूवन्महावीध्यन्त राश्रिताः ।।१३६।। माधपीठतलालग्ना निमलस्फाटिकोद्भवाः । प्रसरश्मिजालस्ता व्यधुनित्यं दिनश्रियम्।।१४।। तासामुपरि विस्तीणों वियत्स्फाटिकनिर्मितः । रत्नस्तम्भर्महातुङ्गो दिव्यः श्रीमण्डपोऽभवद ।।१४१॥ यतोऽत्र त्रिजगनायः प्रत्यक्षं पुरा पं. स्त्री-मिलामी ततः श्रीमण्डपोऽस्त्ययम् । १४२ बेब की प्रतिमाएं हैं उनका भक्तिपूर्वक अभिषेक, पूजन, स्तुति और परिक्रमा कर देष उत्तम पुण्य का संचय करते हैं ।।१३३॥ उसके प्रागे स्तूप तथा भवनों की पंक्ति से युक्त उस भूमि को उलंघ कर शुद्ध स्फाटिक रत्नों से निर्मित आकाश स्फारिक मरिणयों का कोट है ।।१३४॥ यह कोट शालाओं से उत्कृष्ट तथा गोलाकार है। इसके पद्मराग मरिण निर्मित ऊचे ऊचे गोपुर भी अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे ॥१३५।। इन गोपुरों पर भी पहले के समान मङ्गल द्रव्य रूप संपदाए मानना चाहिये । साथ ही द्वारों के समीप वास्तविक भोगों को देने वाली निधियां भी विद्यमान रहती हैं ॥१३६॥ छत्र, चामर, ताडव्यजन, ध्वजा, दर्पण, ठौना, भृङ्गार और कलश ये मङ्गलमय पदार्थ प्रत्येक गोपुर के समीप उपस्थित रहते हैं ।।१३७। उन गोपुरों पर गदा आदि हाथ में लिये हुए देव द्वारपाल थे। पूर्वोक्त तीन कोटों पर क्रम से व्यन्तर, भवनवासी, और कल्पवासी इन्द्र द्वारपाल थे॥१३॥ तदनन्तर स्फटिकमरिणमय कोट के आगे से लेकर जिनपीठ तक सम्बी सोलह बीवालें हैं जो महावीथियों के अन्तराल में स्थित हैं ॥१३६।। जो प्रथम पीठ से संलग्न हैं तथा निर्मल स्फटिक मरिणयों से जिनकी उत्पत्ति हुई हैं ऐसी वे दीवाले फंसते हुए किरण समूह के द्वारा निरन्तर दिन की शोभा को उत्पन्न करती रहती हैं ।।१४०॥ उम दीवालों के ऊपर प्राकाशस्फटिक से निमित, रत्नमयस्तम्भों से सहित, बहुत ऊँचा, विस्तृत तथा सुन्दर श्रीमण्डप या॥१४१॥ जिसकारण इस मण्डप में त्रिलोकीनाथ जिनेन्द्रदेव, १.जैनेन्द्री ग. २. द्वारपालाः ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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