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________________ २४० ] * श्री पार्श्वनाथ चरित . राजतानि बभुर्वेद्या गोपुराण्यष्टमङ्गलैः । वाद्यं र्गीतैश्चनृत्ताद्य मरिणभूषणतोरणः ॥११॥ ततो वीथ्यन्तरालस्था विविधा: केतुपंक्तयः । प्रलंचक्र : परां भूमि हे मस्तम्भारलम्बिताः।।११।। सुस्थास्ते रत्नपीठेषु ध्वजस्तम्भा महोनताः । विभोः क्रोधाधरीणां विजयं वक्तुभिवोद्यताः।११६। मानस्तम्भाश्च प्राकाराः सिद्धार्थचत्यपादपाः । स्तूपाः सतोरणाः स्तम्भाः केतवी वनवेदिकाः।११७ प्रोक्तास्तीर्थकरोत्सेधादुत्तुङ्गेन द्विषड्गुणाः । देानुयोगमेतेषामाहू रोन्द्रय गणाधिपाः ॥११॥ हरियां पर्वतानां च वनानामुन्नतिभुवि । सर्वेषां वरिणतषव भीजिनागमकोविदः ।।११६।। भवेयुरद्रयो रुन्द्राः स्वोच्छ्रयादष्ट संगुणम् ' । स्तूपानां रौन्द्रयमुत्सेधात्साधिकं ज्ञानिनो विदुः।१२० विस्तार वैदिकादीनामुन्ति श्रीगणाधिपाः । उत्सेवस्य चतुर्भाग द्वादशाङ्गान्धिपारगा: ।।१२१॥ क्वचिद्वाप्य: क्वचिनद्य: क्वचिसकतमण्डलम् । क्वचिसभागृहाणीति रेजस्तत्र बनान्तरे ।।१२२।। वनवीयोमिमामेव वव्र'ऽसौ वनवेदिका । तुङ्गा हेममया दिव्या चतुर्गोपुरसंयुता ।। १२३॥ के प्रत्येक गोपुर पर घण्टाओं के जाल, लटकती हुई मोतियों की मालाए तथा पुष्पमालाएं सुशोभित हो रही थीं ॥११३॥ वनवेदिका के रजत निमित गोपुर, अष्ट मङ्गल द्रव्यों, बाजों, गीतों, नृत्यों तथा मरिणमय प्राभूषणों और तोरणों से सुशोभित हो रहे थे ।११४॥ तदनन्तर वीथियों के अन्तराल में स्थित उत्कृष्ट भूमि को, सुवर्णमय स्तम्भ के अग्रभाग पर संलग्न नाना प्रकार की ध्वजपंक्तियां प्रलंकृत कर रही थीं ॥११५॥ रत्नमय पोठों पर अच्छी तरह स्थित वे बहुत ऊंचे ध्वजस्तम्भ ऐसे जान पड़ते थे मानों 'भगवान् ने क्रोधादि शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली है' यह कहने के लिये हो उधत हुए हों ।।११६॥ मानस्तम्भ, कोट, चैत्यवृक्ष, स्तूप, तोरण, स्तम्भ, पताकाएं, और बनवेदिका प्रादि जो पहले कहे गये हैं वे ऊंचाई की अपेक्षा तीर्थकर की ऊंचाई से बारह गुण होते हैं । गणधर महाराज ने इन सबकी लम्बाई तथा गहराई का भी यथा योग्य वर्णन किया है ॥११७-११८॥ श्री जिनागम के ज्ञाता विद्वानों ने भवनों, पर्वतों तथा धनों को पृथिवी पर जो ऊंचाई है उसका वर्णन किया ही है ॥११६। पर्वत अपनी ऊंचाई से पाठ गुरणे गहरे थे तथा ज्ञानीजन स्तूपों की गहराई ऊंचाई से कुछ अधिक जानते हैं ॥१२०॥ द्वादशाङ्गरूपी सागर के पारगामी श्री गणधर देव वेविका प्रादि के विस्तार की ऊंचाई का चतुर्थ भाग कहते हैं ।।१२१॥ उस कल्पवृक्ष वन के मध्य में कहीं वापिकाए हैं, कहीं रेतीले तट हैं, और कहीं सभागृह सुशोभित हो रहे हैं ॥१२२॥ इसी धन वीथी को वह धमवेदिका घेरे हुए है जो ऊंची है, सुवर्णमय है, देवोपनीत अथवा सुन्दर है तथा चार १ दशमंगुणम् स्व० २. मुन्नति ग• ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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