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________________ षोडश तर्ग [ २१३ त्वां हि जगत्त्रयोनार करणा परमं गरुम । निश्वानिष्टविघाताय नाथाभिष्टुमहे वयम् । १२०।। ते प्रभो गणनातीता मनल्पविषया गुणाः । प्रशक्या वस्तुमस्माभिरसमास्तुच्छबुद्धिभिः ।१२१॥ मस्वैवं देव मश्चित्तं स्तुती दोलायतेऽद्य ते । तथापि त्वद्गुणः सम्यक् स्वं पवित्री प्रकुर्महे १२२। बहिरन्तमलाचापानिमलास्ते गुणा: प्रभो । स्फुरन्ति मेघनिर्मुक्ता रम्या इव करा रवः । १२३॥ निरस्ताखिलमंतापा जगच्छुद्धिविधायिनी । भारतीय पुनीयान्नो दीक्षेयं 'पारमेश्वरी ॥१२४।। जगदानन्दधा नाथ विश्वानिष्टक्षयंकरी । सुवागिय सुनिःक्रान्तियौं धमाकीयं धिनोति न: १२५ राजलक्ष्मी चला हत्वा तपोलक्ष्मी पगं शुभाम् । दधतो मुक्तिधात्री ते नैर्ग्रन्थ्यं क्वास्ति धर्मराट १२६ प्रस्तरान् रत्नसंज्ञान संत्यक्त्वा संदधतस्तव । रत्नत्रयमनध्यं परं क्याहो ग्रन्थविध्युतिः ।।१२७।। स्त्रयगुच्यने विहायाशु रागं ते कुर्वतः परम् । मुक्तिनायो महारागं व लोकेऽस्ति विरागता १२५ स्वल्पेश्वयं परित्यज्य जगदपत्रयमीहत: । कुतस्ते लोनिमुक्तिभंगवतिलोभिनः ।।१२।। हे नाथ ! हम समस्त अनिष्टों को नष्ट करने के लिये तीनों लोकों के नाथ तथा गुरुषों के परमगुरु प्रापको स्तुति करते हैं ॥१२०।। हे प्रभो ! जो गणना से रहित हैं, बहुत भारी हैं तथा अनुपम हैं ऐसे प्रापके गुण हम तुच्छ बुद्धियों के द्वारा नहीं कहे जा सकते हैं ।।१२१॥ हे वेव ! ऐसा जानकर आज आपकी स्तुप्ति करने में हमारा चित्त यद्यपि चञ्चल हो रहा है तो भी हम अापके गुरगों द्वारा अपने प्रापको अच्छी तरह पवित्र कर रहे हैं ।।१२२॥ हे प्रभो ! बाह्याभ्यन्तर मल के नष्ट हो जाने से निर्मलता को प्राप्त हुए प्रापके गुण मेघ से निर्मुक्त सूर्य की सुन्दर किरणों के समान देदीप्यमान हो रहे हैं । १२३॥ जिसने समस्त संताप को नष्ट कर दिया है, तथा जो जगत् को शुद्धि करने वाली है ऐसी यह प्रापको वीक्षा सरस्वती के समान हम लोगों को पवित्र करे ।।१२४॥ हे नाथ ! जो जगत् को प्रानन्य देने वाली है तथा समस्त अनिष्टों का क्षय करने वाली है ऐसी प्रापकी यह दोमा विष्यवाणी के समान हम सबको संतुष्ट करती है ।।१२५।। हे धर्मेश्वर ? चंचल राजलक्ष्मी को छोड़कर मुक्ति की धायस्वरूप परम शुभ तपोलक्ष्मी को धारण करने वाले आपके निर्ग्रन्थपना कहां है ? ॥१२६॥ रत्न नामक पाषारणों का त्याग कर जब पाप प्रमूल्य तथा उत्कृष्ट रत्नत्रय को धारण कर रहे हैं तब प्रापका परिग्रह त्याग कहां हुमा ? ॥१२७॥ स्त्री के अपवित्र शरीर में शीघ्र ही राग छोडकर जब पाप मुक्तिरूपी नारी में अत्यधिक महान् राग को धारण कर रहे हैं तब लोक में आपके विरागता कहां हुई ? ।।१२।। हे भगवन् ! अत्यन्त अल्प ऐश्वर्य का त्यागकर जब पाप समस्त जगत् के ऐश्वर्य की इच्छा कर रहे हैं तम अत्यधिक लोभ करने वाले प्रापके लोभ का त्याग कहां हुमा ? १.परमेसरस्येयं पारमेरो २ संत्यज्य:
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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