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________________ २१४ ] * भो पावनाप चरित - तुच्छे भोगे स्पृहां हत्वा मुक्तिकान्तोद्भवान् परान् । भोगानासक्तपित्तस्य नि:स्पृहत्वं क्व ते जिन' १३० बन्धूनल्पान् वै हित्वा त्रिजगतां बन्धुता पराम् । कुर्वतः स्वगुण : स्वामिन् कथं ते मोहसंच्युतिः १३१ रतिप्रीत्योस्त्वया नाय कुतं वैधव्यमञ्जसा । बाल्ये तद्भदृ धातेन कुतस्ते हृदये दया ॥१३२।। हेयाहेयं परिज्ञाय हत्वा हेयं परं महत् । स्वीकुर्वत उपादेयं कुतस्ते समभावना ।।१३३॥ पराषीनं सुम्न स्यक्त्वा स्वाधीनं सुखमिच्छतः । नित्यं मुक्तित्रियोपेतं कुतस्ते निःस्पृहं मनः ।।१३४।। मोहमलं विलोक्याशु हत्यमान' विधेः पतिम् । भोत्वाधानि विहाय स्वामगुः पाश्वं कुलिङ्गिनाम् । "देव, निगृह्ममारणं स्मरभूपं विश्वतापिनम् । प्रक्षसैन्यं विहाय त्वां रागिरणा निकट व्यगात् ॥ त्वया बाल्येऽपि देवात्र दुईरो मन्मयो जितः । जगज्जयीन्द्रियैः साई महच्चित्रमिदं सताम् । १३७ प्रतो न भवता तुल्यां धीरोऽनेकगुणाकरः । सर्वानिष्टहरी दक्षो ज्ञानवानपरो भुवि ।।१३८॥ ॥१२६।। तुच्छ भोग में स्पृहा लालसा को छोडकर जद्ध पाप मुक्ति स्त्री से उत्पन्न होने वाले उत्कृष्ट भोगों के प्रति आसक्त चित्त हो रहे हैं तब हे जिनेन्द्र ! पाएके निःस्पृहपना कहाँ है ? ।।१३०॥ हे स्वामिन् ! निश्चय से अल्प बन्धों को छोडकर जब आप अपने गुरखों के द्वारा तीन जगत् को उत्कृष्ट बन्धुता को कर रहे हैं तब आपके मोह का त्याग कैसे हमा? ३१३१॥ हे नाथ ! अापने नमाजस्था में ही रति परि प्रीति के पक्ष का घात कर उन्हें वास्तव में विधवा बना दिया है अतः आपके हृदय में क्या कहां से प्राई ? ॥१३२॥ प्रापने हेय-छोडने योग्य और अहेय-न छोडने योग्य वस्तु को अच्छी तरह जान कर हेय-छोडने योग्य परपदार्थ को छोड़ दिया है और बहुत भारी उपादेय-ग्रहण करने योग्य पदार्थ को ग्रहण किया है अतः प्रापके समभावना कहां से प्राई ? ॥१३३॥ अब पाप पराधीन सुख को छोडकर मुक्ति लक्ष्मी से सहित स्वाधीन नित्य सुख की इच्छा कर रहे हैं तब आपका मन निःस्पृह कैसे हो सकता है ? ॥१३४।। कर्मों के राजा मोह मल्ल को पापके द्वारा शीघ्र ही नष्ट किया जाता देख पाप डर गये इस लिये वे प्रापको छोडकर कुलिसियों-मिथ्या तापसों के समीप चले गये हैं ॥१३५।। हे देव ! समस्त संसार को संतप्त करने वाले कामदेवरूपी राजा को प्रापके द्वारा दण्डित किया जाता देख इन्द्रियों को सेना आपको छोड़कर रागी जीवों के निकट चली गई है ।।१३६।। हे देव ! प्रापने इन्द्रियों के साथ जगद्विजयी दुर्धर कामदेव को यहां बाल्य अवस्था में ही जीत लिया है यह सत्पुरुषों के लिये दड़े प्राश्चर्य की बात है ।।१३७।। इसलिये पृथियो पर अापके समान दूसरा धीर वोर, अनेक गुणों को खान, ममस्त अनिष्टों को हरने वाला चतुर और ज्ञानवान नहीं है १ : स्व. ग. २. पण: ६. पापानि, पानि ख• ग घ. ४. देव निराधमानं स्व. ५ जगाम ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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