SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * सप्तम सर्ग * [ ७६ सप्तमः सर्गः जगद्धितं जगन्नाचं जगन्धं जगत्गुरुम् । जगदातिहरं वन्दे श्रीपाश्वं तद्गुणाप्तये ॥१॥ प्रय जम्बूमति ठीपे क्षेत्र भारतनामनि । विषयः कोशलाख्योऽस्ति कौशल्यजनसंभृतः ।।२।। संवाहनपुरग्रामखेटद्रोणमुखादयः । मटम्बपत्तना यत्र धनधान्यादिसंकुलाः ॥३॥ जिनचैत्यालयः सारैः सुधार्मिकजनोत्करैः । मुनिपण्डितसंधश्च भान्ति धर्माकरा इव ॥४।। मुनयश्च गणाधीमा: केवलज्ञानिनोऽमलाः । संधश्चतुर्विधः माद सुरासूर निषेविताः ॥५॥ विहरन्ति च भव्यानां मुक्तिमार्गप्रवृत्तये । धर्मोपदेशदातारो यत्रानुग्रहकारिण: ।।६।। इत्यादिवर्णनोपेतदेशस्य गुणशालिनः । मध्येऽयोध्यापुरीभात्यजय्यभूपभटवजैः ॥७॥ अनुल्लङ्घचमहातुङ्गप्राकारगोपुर- बजः । प्रगाघखातिकायश्चायोध्येब' या व्यभाप्तराम् ।।८।। सप्तम सर्ग जगत हितकर्ता, जगत् के नाथ, जगद्वन्ध, जगद् गुरु और जगत् को पोडा को हरने वाले श्री पाश्र्वनाथ भगवान को मैं उनके गुरणों की प्राप्ति के लिये बन्दना करता है ॥१॥ अथानन्तर जम्यूद्वीप के भरत क्षेत्र में कुशल मनुष्यों से परिपूर्ण कौशल नामका देश है ॥२॥ जहां धन धान्यादि से परिपूर्ण संवाहन, पुर, नाम, खेट, द्रोणमुख प्रादि तथा मटम्ब और पत्तन विद्यमान हैं ।।३।। श्रेष्ठ जिन मन्दिरों, अत्यन्त धार्मिक मनुष्यों के समूहों और मुनि तथा विद्वज्जनों के सङ्खों से वे संवाहन, ग्राम, नगर प्रावि धर्म को खानों के समान सुशोभित हो रहे हैं ।।४। जहां भव्य जीवों को धर्मोपदेश देने वाले परमोपकारी मुनि, गणधर और रागादिक मल से रहित तथा सुर-असुरों के द्वारा सेवित केवली भगवान् मोक्ष मार्ग को प्रवाने के लिये चतुर्विध संघ के साथ विहार करते रहते हैं ॥५-६।। इत्यादि वर्णनों से सहित उस गुरणशाली कौशल देश के मध्य में एक अयोध्यापुरी है जो अजेय राजा तथा योद्धानों के समूह से सुशोभित हो रही है ।॥७॥ जो उल्लङ्घन करने के अयोग्य, बहुत ऊचे कोट, गोपुरों के समूह तथा अगाध परिखा प्रादि से सचमुच ही अयोध्या के समान अत्यधिक सुशोभित हो रही है। भावार्थ-जिसके साथ युद्ध न किया जा सके वह अयोध्या है । वह नगरी ऊचे ऊंचे कोट तथा अगाध परिखा प्रावि के कारण सचमुच ही युद्ध करने के योग्य नहीं थी। इसलिये उसका अयोध्या नाम सार्थक था ॥८॥ १. योद्ध मशक्या । .
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy