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________________ * षोडश सर्ग . [ २०५ इति स्तुत्वा जिनाधोशं संप्रायं स्वेष्टवस्तु च । स्वं नियोग विधायोच्चनस्वा तपादपङ्कजम् ।४।। महुमूर्ना व्युपााप्तिपुण्यं स्तवन पूजया । शुद्धाशयाः सुरास्तेऽतः कृतकार्या दिवं ययुः ।।४।। तेषां वचोऽसवः प्रागुजिनस्य सहकारिताम्' । मोहध्वान्त विनाशे च यथा दीप: सचक्षुषाम् ॥४२॥ सतोऽवबुध्य घण्टादिनादेनावधिमा तदा । तन्निःक्रमणकल्याणं सामरा: कम्पिसासनाः ।।३। घोतयन्तो दिशः खं च स्वाङ्गने पथ्यरश्मिभिः । अनेकविक्रियोपेतदिव्यस्त्रीवृन्दवेष्टिताः ॥४। चतुरिणकायजा: सर्वो स्वस्वभृत्युगलक्षिताः । अाजग्मुनिजधर्माय तवेन्द्रा हर्षिताननाः ।।४।। नभोऽङ्गण मथारुध्य वनं च परितः पुरीम् । वीथी तस्थुः सुरानीकाः सकलत्राः सवाहनाः ।४६ अप्सरोभिश्च गीर्वाणीत नृत्यमहोत्सवैः 1 तदा बभी पुरी सातिरम्या स्वनं गरी यथा ।।४।। ततोऽस्य परिनिष्क्रान्ति महाकल्याणसिद्धये 1 महाभिषेकमाचक्रुर्देवेन्द्राः सामरा मुदा ॥४८॥ किन्तु हम लोगों को भव भव में बाल्यावस्था में चारित्र प्रदान करो ॥३६॥ इस प्रकार जिनेन्द्र की स्तुति कर, अपनी इष्ट वस्तु को प्रार्थना कर, अपना नियोग पूरा कर, उनके चरण कमलों में मस्तक से बार बार नमस्कार कर तथा स्तवन रूप पूजा से प्रत्यधिक पुण्य उपार्जन कर, शुद्ध अभिप्राय से सहित वे देव कृतकृत्य होते हुए यहां से स्वर्ग चले गये ।।४०-४१॥ जिस प्रकार दीपक चक्षु सहित मनुष्यों का अधिकार नष्ट करने में सहकारिता को प्राप्त होता है उसी प्रकार उन लोकान्तिक देवों के बचनरूपी किरणें जिनराज के मोहरूपी तिमिर के नष्ट करने में सहकारिता को प्राप्त हुई थीं ।।४२॥ तदनन्तर जो देवों से सहित हैं जिनके पासन कम्पित हुए हैं, जो अपने शरीर और प्राभूषणों को कान्ति से विशाओं तथा प्राकाश को वेदीप्यमान कर रहे हैं, जो अनेक विकियात्रों से सहित देवाङ्गमाओं के समूह से वेष्टित हैं, अपनी अपनी विभूति से साहित हैं, तथा जिनके मुख हर्षित हो रहे हैं ऐसे चतुर्रिणकाय के इन्द्र घण्टा प्रावि के शब्द तमा अवधिज्ञान के द्वारा उस समय भगवान का निःक्रमण कल्याणक-दीक्षाकल्याणक जानकर अपने धर्म के लिये-अपना कर्तव्य पूर्ण करने के लिये आ पहुँचे ॥४३-४५॥ तदनन्तर स्त्रियों और वाहनों से सहित वेघ सेनाए गगनाङ्गण, वन, नगरी और गलियों को चारों पोर से घेरकर खड़ी हो गई ॥४६।। उस समय अप्सरानों, देवों, और गीत नृत्य के महोत्सवों से अत्यन्त रमणीयता को प्राप्त हुई यह नगरी स्वर्गपुरी के समान सुशोभित हो रही पी ॥४७॥ तवनन्तर देवों से सहित इन्द्रों ने तपः कल्याणक की सिद्धि के लिये हर्षपूर्वक भग १. सहक रिणीम् ग०२. कल्वारगममरा ग.३. दीक्षाकल्याण-1
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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