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________________ * श्री पार्श्वनाथ चरित - तस्वया विहितं भद्रं स्वल्पायुष्केऽपि यत्कृतम् । वैराग्याधिष्ठितं चेतो दीक्षाय त्रिजगद्गुरो'॥३०॥ मतः शीघ्र कुरूद्योगं स्वान्ययोहितकारणम् । संयमाप्त्यै जगद्भूतॊ हत्या मोहादिविद्विषः॥३१॥ संयमग्रहणे स्वामिनेष कालः समागतः । कर्मारातीन् विजेतु स्रष्टु धर्मतीर्थमेव च ।।३२।। अतो जयेश देव त्वं कर्मारीश्च तपोऽसिना। मोहमल्लं स्मराराति वराग्यास्त्रेण खानि च ३३|| परीषहभटान्नाथ त्वं घातय तपोऽसिना । केवलज्ञानमासाद्य स्वाधीनं कुरु सच्छिनम् ।।४।। उत्तिष्ठतां भवाम्मुक्ती कुमार धर्मवर्तने । स्त्रीभोगादीन भुक्त्वापि ह्यतृप्तिजनकान् द्रुतम्॥३५।। सर्ववस्तुषु संवेगसंप्राप्ताय नमोऽस्तु से ! नि:स्पृहाय स्वराज्यादौ सस्पृहाय 'शिवे जिन । ३६ ।। मुमुक्षवे नमस्तुभ्यं नमः कामारिनाशिने । श्रीक्षोद्यताय ते प्रभो त्यक्तरागाय ते नमः ।।३७।। नमस्ते दिव्यरूपाय सदालब्रह्मचारिणे । मोहनाय नमस्तुभ्यं त्रिजगरस्वामिने नमः ।।३८ ।। देवतत्स्तवने नात्र प्रार्थयामो अगच्छि,यम् । न हि त्वां किन्तु नो देहि " बाल्ये वृत्त भवे भवे ३६ / और धर्यशाली हैं ॥२६॥ हे तीन जगत् के गुरु ! आपने यह बहुत भला किया जो अल्पायु में भी घेराग्य से युक्त अपना मित्त धोक्षा के लिये उद्यत किया ॥३०॥ इसलिये हे जगत्पते ! मोहादि शत्रुओं को नष्ट कर संयम की प्राप्ति के लिये स्वपरहितकारक उद्योग शीघ्र ही कीजिये ॥३१॥ हे स्वामिन् ! यह समय संयम के ग्रहण करने, कर्मशत्रुओं को जीतने और धर्मतीर्थ की सृष्टि करने के लिये प्राया है ।।३२।। इसलिये हे ईश ! हे देव ! तुम तपरूपी तलवार के द्वारा कर्मरूपी शत्रुओं को जीतो और वैराग्यरूपी शस्त्र के द्वारा मोहरूपी मल्ल, कामरूपी शत्रु तथा इन्द्रियों को परास्त करो ॥३३॥ हे नाथ ! तुम तपरूपी खडग के द्वारा परिषहरूपी योद्धामों का घात करो और केवलज्ञान प्राप्त कर उत्तम मोक्ष को अपने अधीन करो ॥३४॥ हे कुमार ! जो भोगकर भी प्रवृत्ति को उत्पन्न करने वाले हैं ऐसे स्त्रीभोग प्रावि को शीघ्र ही छोड़ कर प्राप धर्म के प्रवर्ताने और मुक्ति प्राप्त करने के लिये उद्यमयुक्त होमो ॥३॥ है जिन ! जो सब वस्तुओं में संवेग को प्राप्त हैं, अपने राज्य मादि में निःस्पृह हैं तथा मोक्ष में स्पृहा-इच्छा से सहित हैं ऐसे आपके लिये नमस्कार हो ॥३६॥ हे प्रभो ! आप मुमुक्षु हैं अतः पापको नमस्कार है। प्राप कामशत्रु को नष्ट करने वाले हैं प्रतः प्रापको नमस्कार है । प्राप दीक्षा के लिये उद्यत हैं इसलिये आपको नमस्कार है । आप वीतराग हैं अतः पापको नमस्कार है ॥३७॥ प्राप दिव्य रूप के धारक होकर भी उत्तम बाल ब्रह्मचारी हैं अतः पापको नमस्कार है । पाप मोह को नष्ट करने वाले हैं प्रतः प्रापको नमस्कार है। प्राप तीन जगत के स्वामी हैं प्रतः प्रापको नमस्कार है ।।३६॥ हे देव ! इस स्तवन के द्वारा हम प्रापसे यहां जगत् को लक्ष्मी नहीं चाहते हैं १ त्रिजगद्गुरोः स ० ५० २ जगद्भर्ता ग० ३. इन्द्रियाणि ४. विशेषतः ख० घ० १. कल्ये वृत्त स्व० ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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