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________________ * चतुर्दशम सर्ग * [ १७६ कल्पत्रृक्षोऽप्ययं मन्त्र: संकल्पिताखिलार्थदः । चिन्तामणिश्च निःशेषचिन्तितार्थकरो नृणाम् ॥ कामधेनुश्च मन्त्रोऽयं कामिताशेषवस्तुकृत् । निधिः स्वामी पिता माता सुहुतास्माद्धितोऽपरः । यत्किञ्चिन्वा दुःसाध्यं स्थितं दूरेऽतिदुर्लभम् । मन्त्रेशध्यानिनां शीघ्र तत्सर्वं जायते करे । ११५ सत्तामालिनं दत्तं मुक्तिस्त्री स्वयमेत्य च। भार्येव मन्त्रमाकृष्टा का कथा नाकयोषिताम् ।। किमत्र नोक्तेन यद्यदङ्गी समीहते । तत्तदेव भवे नूनं मन्त्रराजप्रसादतः ।। ११७ ॥ प्रथास मोहल्लोकान् रूपकान्त्यादिसद्गुरोः कुमारः स्वपुरीं भूत्या जगामाहीन्द्रलीलया ११८ ततस्त्रिशत्ययामानं सुखमुल्वणम् । देवमर्पितं दिव्यं भुञ्जन्नास्ते मुदा जिन: ११६ जयसेनाख्यभूपतिः । धर्म्मप्रीत्यान्यदासौ प्राहिणोच्छ्री पार्श्वसनिधिम् ।। कृत्स्नकार्यकरं हितम् । भगलीदेशसंजातयादिप्राभृतैः समम् ।। १२१ ।। भक्तिपूर्वकम् । स्वकरी कुड्मलीकृत्य ननाम तत्पदाम्बुज । १२२ ।। साकेतनगरेशोऽथ निसृष्ट थे महादूतं सोऽयागस्य समयशु प्राभृतं कुमारः करने वाले जो प्रज्जन श्रादि चौर तथा प्रत्यन्त क्रूर तिर्यञ्च थे वे भी मृत्यु के समय जिस मंत्र को प्राप्त कर स्वर्ग गये ||११२|| संकल्प किये हुए समस्त पदार्थों को देने वाला यह मंत्र कल्पवृक्ष भी है तथा समस्त चिन्तित पदार्थों को देने वाला यह मंत्र मनुष्यों के लिये चिन्तामणि भी है ॥ ११३॥ समस्त मन चाही वस्तुनों को देने वाला यह मंत्र कामधेनु है । इस मंत्र से अधिक हितकारी न तो कोई निधि है, न स्वामी है, न पिता है, न माता है, और न मित्र है ।। ११४ ।। इस जगत् में जो कुछ भी वस्तु कष्टसाध्य, हूर स्थित और दुर्लभ है वह सब मत्रराज का ध्यान करने वालों के हाथ में शीघ्र ही उत्पन्न हो जाती है ।। ११५ ॥ जब मंत्र की लक्ष्मी से आकर्षित मुक्तिरूपी स्त्री स्वयं श्राकर भार्या के समान सत्पुरुषों को प्रालिङ्गन देती है तब बेवाङ्गनानों की तो कथा ही क्या है ? ।। ११६ ॥ । इस विषय में अधिक कहने से क्या लाभ है ? प्राणी जो जो चाहता है मंत्रराज के प्रसाद से वही वही निश्चित ही प्राप्त हो जाता है ॥११७॥ प्रथानन्तर रूप तथा कान्ति प्रावि सद्गुरणों से लोगों को मोहित करते हुए पार्श्वकुमार धरन्द्र जंसी लीला से वैभवपूर्वक अपनी नगरी में वापिस श्रा गये ||११८ || तदनन्तर तीस वर्ष तक कुमार देव और मनुष्यों के द्वारा प्रति उत्कट दिव्य सुख का उपभोग करते हुए हर्षपूर्वक रहे ।।११६|| पश्चात् किसी अन्य समय साकेत नगर के स्वामी जयसेन नामक राजा ने धर्मप्रीति से श्री पार्श्वकुमार के निकट समस्त कार्यों को करने वाला हितकारी प्रधान महादूत, भगली देश में उत्पन्न श्रश्व आदि उपहारों के साथ भेजा ।। १२०-१२१।। तदनन्तर उस दूत ने आकर शीघ्र ही भक्तिपूर्वक उपहार समर्पित किया १. जगाम होन्द्रलीलया वः ग० २. त्रिशद्धप्रमाण ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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