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________________ १७८ • श्री पार्श्वनाथ चरित * अहियुग्ममही करं जीवभक्षणतत्परम् । नमस्कारेण यद्येवं सुखं प्राप्त महत्ततः ।। १०२।। त्रिशुद्धघा में नमस्कारान् जपन्त्यत्रानिशं बुधाः । त्रिलोकीपतयः किन्नामुत्र स्युस्तेऽतिधार्मिकाः १०३ मनाचनिधनो मन्त्रराजोऽयं सार जितः । मध्येऽखिलाङ्गपूरण जिनेन्द्रशासनस्य च । १०४। यथारपोश्च परं नापं नभसो न महत्परम् । मन्त्रेशादपरो मन्त्रः सर्वसिद्धिकरोऽस्ति न ।।१०५॥ पौरारिदुष्टभूपालदुर्जनादिभवा द्रुतम् । उपद्रवा विलीयन्ते महामन्त्रेण धीमताम् ।। १०६ । दुःसहाः सकला रोगा कुष्ठदोषश्योद्भवाः । 'मन्त्रजापाक्षयं यान्ति वजणाशु यथाद्रयः १०७ दुष्टा भूला: पिशाचाश्च शाकिन्यो दुधिडामरा: । कतुं पराभवं पाता न मन्त्रापितचेतसाम् ।।१८८। शृखलादिमहापाशा दृढाश्व बन्धनादय: । मन्त्रस्मरणमात्रेण शतखण्डं प्रयान्यहो ॥१०६।। प्रधौ च विषमेऽरण्ये दावाग्नी दुद्धरे रणे । सर्वत्रापदि सद्वन्धुर्मन्त्रोऽयं रक्षकोऽङ्गिनाम् । ११०। जिनेन्द्रचशिकादीनां भूतयः सुखादयः । परमेष्ठिप्रसादेन जायन्ते धर्मिणां पराः ।।१११।। सप्तव्यसनिनो मा धेऽ...सार न..: । रिले गमासाद्य मन्त्रं मृत्यो दिवंगताः १११२ जीवभक्षरण करने में तत्पर रहने वाला सर्प सपिणी का कर युगल भी यदि नमस्कार मंत्र से ऐसे महान् सुख को प्राप्त हुआ है तो जो विद्वज्जन मन पचन काय की शुद्धतापूर्वक निरन्तर नमस्कार मंत्र को जपते हैं वे परलोक में क्या प्रत्यन्त धार्मिक त्रिलोकीनाथ नहीं होंगे ? अर्थात अवश्य होंगे ॥१०२-१०३।। जिनेन्द्र धर्म के समस्त प्रा और पूर्वो के बीच यह अनादि निधन मंत्र राज अत्यन्त सारभूत कहा गया है ।।१०४।। जिस प्रकार परमाणु से अल्प दूसरा नहीं है और जिस प्रकार प्राकाश से बड़ा दूसरा नहीं है उसी प्रकार मंत्रराज से बढ़कर सर्वसिद्धि को करने वाला दूसरा मंत्र नहीं है ।।१०५॥ चौर, शत्रु, दुष्ट राजा, तथा दुर्जन आदि से होने वाले विद्वज्जनों के उपद्रव, महामंत्र के द्वारा शीघ्र ही विलीन हो जाते हैं ।।१०६॥ जिस प्रकार बच से पर्वत शीघ्र ही क्षय को प्राप्त होते हैं उसी प्रकार कुष्ठ तथा वात पित्त कफ इन तीन दोषों से उत्पन्न होने वाले समस्त कठिन रोग मंत्र के जपने से शीघ्र ही भय को प्राप्त हो जाते हैं ।।१०७॥ दुष्ट भूत, पिशाच, शाकिनी तथा मूर्ख प्रेत आदि देव, मंत्र में चित्त लगाने वाले जीवों का पराभव करने में समर्थ नहीं हैं ॥१०॥ अहो ! शृङ्खला प्रादि महापाश तथा दृढ बन्धन प्रादि, मंत्र के स्मरणमात्र से शतखण्ड को प्राप्त हो जाते हैं ॥१०६। समुद्र में, विषम अटवी में, वावाग्नि में, भयंकर युद्ध में और सब प्रापत्तियों में यह मंत्र प्राणियों की रक्षा करने वाला उत्तम बन्धु है ।।११०॥ परमेष्ठी के प्रसाद से धर्मात्मा जीवों को तीर्थकर चक्रवर्ती तथा इन्द्रादि को उत्कृष्ट विभूतियां और सुख प्रादिक प्राप्त होते हैं ॥१११॥ सप्त व्यसनों का सेवन १. मन्त्रजाप्यात् सं. गं.
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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