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________________ -- --- १८० ] * भो पाश्र्वनाप चरित . गृहोस्वोपायनं दूतोत्तमं सम्मान्य त मुदा । साकेतस्य विभूति पप्रच्छ श्रीजिनपुङ्गवः ॥१२३।। सोऽपि भट्टारक पूर्व वर्णयित्वा जगद्गुरुम् । कीतिकात्यादिकल्याणभूत्या ज्ञानादिसद्गुणः ।। पश्चात्पुरं स्वकीय व्यावर्णयामास सच्छि या । विचारमतुराः प्राज्ञा भवन्ति ऋमदिनः ।। १२५ सच्छु त्वा तत्र कि जातस्तीर्थकृष्नामवद्भयात् । । एष एव पुनर्मोक्षमापदित्युपयोगवान् ।।१२६।। स्मृत्वा लधु निजातीतभवसन्ततिमञ्जसा । संवेगं परमं प्राप कर्मलाघवतो जिनः 11१२७।। ततो विभूतिभोगादिपरित्यक्तमना विभुः। हुदोति चिन्तयामास वैराग्यादिगुणाङ्किते ।१२८१ अहो य. प्राक्त मागदेव राजापिसोय : नाति न कि 'ह्यत्ययश्रत्य खमिश्रितः । इन्धनैरनलो यद्वज्जलधिर्वा नदीशतैः । एति जातु न संतोष तथाङ्गी स्वाक्ष : सुखे: १३० येषां यथा यथा भोगा भवन्त्यत्र समीहिताः। तथा तथाऽनिषिद्धाशा तेषां विश्व प्रसर्पति । १३.११ मत्वेति दूरतस्त्याज्या बुधभोंगा इवोरगाः । अतृप्तिजनकाः सामिन्द्रियादिसुखंद्र तम् । १३२॥ और अपने हाथ जोड़कर उनके चरणकमलों को नमस्कार किया ॥१२२॥ श्री जिनेन्द्र पार्श्वनाथ ने उपहार लेकर सथा हर्षपूर्वक उस उत्तम दूत का सम्मान कर उससे साकेतअयोध्या की विभूति पूछो ॥१२३॥ उस दूत ने भी पहले कीति कान्ति प्रादि कल्यारणों तथा ज्ञानावि सद्गुणों के द्वारा जगद्गुरु भगवान् वृषभदेव का वर्णन कर पश्चात उत्तम लक्ष्मी से अपने नगर का वर्णन किया तो ठीक ही है क्योंकि विचार करने में चतुर मनुष्य क्रम को मानने वाले होते हैं ॥१२४-१२।। यह सुनकर उनके मन में ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि यहाँ तीर्थकर नाम कर्म के उदय से ऋषभदेव तीर्थकर हुए पश्चात् वहो मोक्ष को प्राप्त हो गये। उसी समय शीघ्र ही अपनी पूर्वभवावली का स्मरण कर पाय जिनेन्द्र कर्मोदय को लघुता से सम्यक प्रकार उत्कृष्ट वैराग्य को प्राप्त हो गये ।।१२६-१२७।। तदनन्तर विभूतियों के भोग प्राबि से जिनका मन हट गया है ऐसे विभु पावं जिनेन्द्र वैराग्यादि गुणों से अङ्कित हृदय में ऐसा विचार करने लगे ।।१२।। अहो ! जो प्रारणी इन्द्र प्राधि को पर्याय में प्राप्त होने वाले पूर्व भोगों से तृप्ति को प्राप्त नहीं हुमा वह क्या यहां के दुःख मिश्रित भोगों से तृप्ति को प्राप्त होगा ? अर्थात् नहीं ॥१२६।। जिस प्रकार इन्धन से अग्नि और सैकड़ों नदियों से समुद्र कभी संतोष को प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार प्राणी अपनी इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाले सुख से संतोष को प्राप्त नहीं होता है ॥१३०।। इस जगत् में जिन प्राणियों को मन चाहे भोग जैसे जैसे प्राप्त होते जाते हैं वैसे वैसे ही उनकी तृष्णा किसी रुकावट के बिना, विश्व में फैलती जाती है ॥१३१॥ ऐसा मानकर विद्वज्जनों के द्वारा प्रतृप्ति को उत्पन्न करने वाले, भोग, इन्द्रि यादि सुखों के १. भवान् ग. २. प्राकृत स्व० ३. हि इति अली अत्रत्यः इतिच्छेदः ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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