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________________ २८८ ] श्री पारवनाथ चरित - अहो क्व संवरः पापी स च सद्दर्शनं भुवि । जटाः क्व तापसा दुष्टाः क्व महान्ति व्रतान्यपि २० यद्याप ग्यिशुद्धि स ते चापुः सुमहावसान् । ततः किं नाप्यते भव्यजिनेन्द्रपदसंश्रयात् ।।२।। प्रयासो श्रीगणाधीशः स्वरागार रहाम: : महास. E८ श्रीबिनादर्थमज्जसा ॥२२॥ विश्वमव्योपकाराय चकार रचना पराम् । महता द्वादशाङ्गानां नानाभङ्गनमवणेः ।।२३।। द्वादशानामृताधि तमवगाह्य मुनीश्वराः । जन्ममृत्युजरादाहं जनस्तत्पाठतस्परा: ॥२४॥ निविष्टेऽय जगद्व्ये दिव्यभाषोपसंहृते । सौधर्मेन्द्रो महाप्राज्ञो विधाय करकुमलम् ॥२।। भक्त्या नत्वोत्तमाङ्गन तत्पदाम्जी सुराचितौ । प्रारेभे स्तवनं कतु' तद्विहारामध्ये ॥२६॥ स्तोष्ये त्वां त्रिजगतॊऽप्यनन्तगुणवारिधिम् । पोषकं विश्व जन्तूनां सद्धर्मामृतवर्षणः ॥२७॥ स्वमनोवाकावित्रीकरणाय केवल मुवि । मतिप्रकर्षहीनोऽपि भक्तिप्रेरित एव हि ॥२८॥ भवत्पुण्यगुणोघानां या कोतिः क्रियते बुधैः । याथातथ्येन सा सर्वा कीर्तिता स्यात्स्तुतित्रिन ।२६ दीक्षा ग्रहण कर ली ॥१८-१६॥ प्राचार्य कहते हैं कि अहो ! पापी संवर कहां और सम्यग्दर्शन कहाँ ? पृथिवी पर अटाएं कहां, वुष्ट तापस कहां और महावत कहाँ ? यदि वह संवर देव सम्यग्दर्शन को विशुद्धता को प्राप्त हो गया और उन तापतियों ने महावत प्राप्त कर लिये तो जिनेन भगवान के घरों के प्राश्रय से भव्य जीवों द्वारा क्या नहीं प्राप्त किया जा सकता है अर्थात् सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है ।।२०-२१॥ तवनन्तर महान ऋद्धियों के धारक तथा महाबुद्धिमान स्वयंभू नामक गणधर ने भी मिनेन्द्र देव से भली भांति प्रर्ष को प्राप्त कर समस्त भव्य जावों के उपकार के लिये नाना भङ्ग और नय समूह से युक्त प्रत्यन्त विस्तृत द्वादशाङ्गों को उत्कृष्ट रचना की ॥२२-२३॥ उस द्वादशाङ्गरूप अमृत के सागर में अवगाहन कर उसके पठन करने में तत्पर रहने वाले मुनिराजों ने जन्म मृत्यु प्रौर अरा को बाह-तपन को नष्ट किया था ॥२४॥ सबनम्तर अब जगद् के भव्यजीव यथा स्थान बैठ गये तथा वियष्यनि की समाप्ति हो गई सब महाबुद्धिमान सौधर्मेन्द्र में हाथ जोड़कर उनके देव पूजित चरण कमलों को भक्तिपूर्वक शिर से नमस्कार किया तथा विहार कराने के लिये स्तुति करना प्रारम्भ किया ॥२५-२६॥ हे त्रिलोकीनाथ | पाप अनन्त गुरणों के सागर हैं तथा सद्धर्मरूपी अमृत की वर्षा से समस्त जीवों का पोषण करने वाले हैं प्रतः बुद्धि की अधिकता से रहित होमे पर भी मात्र भक्ति से प्रेरित होकर मैं पृथिवी पर केवल अपने मन और बखम को पवित्र करने के लिए प्रापकी स्तुति करूगा ॥२७-२८।। हे जिन ! ज्ञानी जनों के द्वारा प्रापके पवित्र गुण समूह को जो कीति की जाती है उनका वर्णन किया जाता है वही सब परमार्थ से स्तुति कही गई है ॥२६॥
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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