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________________ • द्वाविंशतितम सर्ग . [ २८१ सिद्धान्तपारयो दक्षो महामतिविशारदः । गुणदोषविचारज्ञः स्तोतास्य दृष्टिभूषितः ।।३०।। अनन्तगुणसंपन्नः परमेष्ठी जगद्गुरुः । विश्वसत्त्वहितायुक्तः स्तुत्यो दोवासिगो महान् ।३१ अनन्तमहिमारूलं भवत्सादृश्यसत्पदम् । प्रभो स्तवनकतणां कीर्तितं स्तुतिजं फलम् ।३२ बुद्धयादिसकला प्राप्य सामग्री स्तुतिगोचराम् । कि विशिष्ट फलार्थी ते बुधो नाधास्तवं प्रभो ।३३ इत्याकलय्य चित्तेन तुष्टूषु मां फलार्थिनम् । नाथ प्रसन्नया दृष्टया पुनीहि त्वं विरागवान् । ३४। या देव स्वयि मे भक्तिः परा त्वद्गुराणभाषणे ! मुखरोकुरुते सा मां नि.शङ्का मन्दधीयुतम् ।।३।। स्वयि भक्ति ताल्पापि महती फलसम्पदम् । फलत्येव न सन्देहः कल्पवल्लीव धीमताम् ।।३६।। भूषावरायुधत्यागादतिसौम्य बपुस्तव । प्राचष्टे देहिनां धीर सर्वदोषविनिग्रहम् ।।३७।। निkषमपि कान्त ते प्रभामिजितभास्करम् । दिव्य मौदारिक देहं भवेद भुवनभूषणम् ।।३।। निरम्बरमपीहातिसुन्दरं कान्तिसंकुलम् । तेऽङ्ग भातीय संपूर्ण बिम्बमिन्दोः परं प्रभो ।३।। सिद्धान्त के पारगामी, चतुर, महाबुद्धि के धारक विद्वान्, गुण दोष के विचार को जानने वाले तथा सम्यग्दर्शन से विभूषित गरगधर इनके स्तोता-स्तुति कर्ता थे और अनन्त गुणों से सहित, परमेष्ठी, जगद्गुरु, समस्त प्राणियों के हित में संलग्न, वोषातीत तथा महान् श्री पाव जिनेन्द्र स्तुत्य-स्तुति के विषय थे ।।३०-३१॥ हे प्रभो ! मनम्त महिमा से युक्त प्रापके समान पद की प्राप्ति होना यह स्तुति करने वाले जीवों को स्तुति से प्राप्त होने वाला फल है ॥३२॥ हे प्रभो ! स्तुति से सम्बन्ध रखने वाली बुद्धि प्रावि समस्त सामग्री को प्राप्त कर विशिष्ट फल का इच्छुक विद्वान क्या प्रापकी स्तुति नहीं करेगा? अवश्य करेगा ॥३३॥ हृदय से ऐसा विचार कर फल की इच्छा करता हुआ मैं आपकी स्तुति करना चाहता हूँ । हे नाथ ! यद्यपि भाप राग रहित हैं तथापि प्रसन्न दृष्टि से मुझे पवित्र करो ॥३४॥हे देव ! प्रापमें तथा प्रापके गुरण कथन करने में जो मेरी भक्ति है वही निःसंदेह रूप से मुझ मन्द बुद्धि को मुखरित कर रही है-बोलने के लिये प्रेरित कर रही है ॥३५॥ प्रापके विषय में धारण को हुई भक्ति प्रल्प होने पर भी कल्पलता के समान बुद्धिमान मनुष्यों को बहुतभारी फलरूप संपत्ति नियम से फलती है इसमें संदेह नहीं है ॥३६॥ हे धीर ! प्राभूषण तथा उत्कृष्ट शस्त्रों के त्याग से अत्यन्त सौम्य रूपाता को प्राप्त हुमा प्रापका शरीर प्राणियों को बता रहा है कि प्रापने समस्त दोषों का निग्रह कर लिया है ॥३७॥ जो प्राभूषण रहित होने पर भी सुन्दर है तथा जिसने अपनी प्रभा से सूर्य को जीत लिया है ऐसा आपका दिव्य औदारिफ शरीर संसार का प्राभूषण है ।।३।। हे प्रभो ! जो वस्त्ररहित होकर भी इस जगत में अत्यन्त सुन्दर है तथा कान्ति से परिपूर्ण है ऐसा प्रापका शरीर संपूर्ण उत्कृष्ट चन्द्र विम्ब के समान सुशोभित हो रहा है ॥३६॥ - - - -- --
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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