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________________ एकविंशतितम सगं . --.. एकविंशतितमः सर्गः धर्मोपदेशदातारं विजगम्यबोधकम् ।दिव्यध्वनिसुघापानमूना बन्दे जगद्गुरुम् ।।१।। प्रथ प्रागुक्ततत्त्वानि पुण्यपापतयेन हि । सार्द्ध नवपदार्थाः स्यु ज्ञानशुद्धिकारकाः ।।२।। मिध्यात्वपोषणास स्वबन्धनमारणात् प्रसत्यवचनादन्यश्रीस्थ्यादिहरणादवि ॥३॥ उपधेः संग्रहाल्लोभात्पञ्चेन्द्रियप्रसेबनात् । विकथादिप्रदानाच्च बहुभेदास्कषामतः ॥ कौटिल्यमनसो दुष्टवायाच विक्रियाङ्गतः । सप्तव्यसनतो देवगुरुधर्मादिनिन्दनात् ॥५॥ इस्यायन्यदुराचारान्महापापं प्रजायते । विश्वदुःखाकरीभूतं प्रमादिनां प्रतिक्षणम् ॥६॥ रोगक्लेशादिबाहुल्यं चान्धत्वं विकलाङ्गता 1 पंगुत्वं वामनत्वं कुम्भकरवं च कुजन्मता ॥७॥ दुभंगस्व हि पापित्वं मूर्खता बुद्धिहीनता । परफिङ्करतातीवकषायित्वं कुरूपता एकविंशतितम सर्ग जो धर्मोपदेश के वेने वाले थे, और दिव्ययनिरूपी अमृत के पान से जो तीन जगह के भव्य जीवों को प्रबुद्ध करने वाले ये उन जगद्गुरु पार्श्वनाथ को मैं शिर से नमस्कार करता हूँ॥१॥ प्रथानन्तर पहले कहे हुए सात तत्त्व, पुण्य और पाप इन दो के साथ मिल कर नौ पदार्थ होते हैं। ये नौ पदार्थ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान को शुद्ध करने वाले हैं ॥२॥ मिथ्यात्व का पोषण करने से, जीवों के वध बन्धन और मारण से, प्रसस्य वचन से दूसरे को लक्ष्मी तथा स्त्री प्रावि के अपहरण से, पृथिवी पर परिग्रह का संग्रह करने से, लोभ से, पञ्चेन्दियों के सेवन से, विकथा प्रादि के करने से, नाना प्रकार की कवाय से, कुटिलमन से, दुष्ट पचन से, विकृत शरीर से, सप्तव्यसन से, देव गुरु और धर्म प्रादिको । निन्दा से तथा इन्हीं के समान अन्य दुराधार से प्रमादी जीवों को प्रतिक्षण समस्त दुःखों की खान स्वरूप महान् पाप होता है ॥३-६॥ रोग तथा क्लेश प्रावि की प्रचुरता, अंधापन, विकलाङ्ग होना, लगड़ा होना, बौना होना, कुबड़ा होना, खोटा जन्म होना, दुर्भग होना, पापी होना, मूर्ख होना, बुद्धि रहित होना, पर का किङ्कर होना, अत्यन्त कषाय से युक्त होना, कुरूप होना, दरिद्र होना, प्रत्यन्त दोन होना, अल्पायुष्क होना, कुरूप स्त्री का मिलना, शत्रु तुल्य पुत्र और भाइयों का प्राप्त होना, समस्त कुटुम्ब का धर्मघातक, पौर
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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