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________________ १६ ] * श्री पाश्वनाथ चरित * इत्यादिहेतुदृष्टान्त रुत्पाद्य निश्चयं शुभम् । भूपतेः श्रीजिनार्यादौ धर्म पूजादिके सथा ।।७।। तत्कथाबमरे लोकप्रयचत्यालयाकृती: । सम्यग्वर्णयितु वाञ्छन् विस्तरेण महाद्भुताः ।७११ प्रागादित्यविमानस्थजिनेन्द्रभवनं महत् । स्वर्णरत्नमयं दिध्यं महाभूत्युपलक्षितम् ।।७।। भानुकोट्यधिकातीवते जो—बिम्बीघसंभृतम् । मुनीशो वर्णयामास सूर्य देवनमस्कृतम् ॥७३॥ तदसाधारणां भूति महता जिनधामजाम् । श्रुत्वा वहन् परां श्रद्धामानन्दोऽतिमुदान्विसः ।।७४।। दिनादौ च दिनान्ते च जिने शां रविमण्डले । स्वकरौ कुड्मलीकृत्य करोति स्तवनं परम् ।।७५।। पानम्रमृकुटो धोमांस्तद्गुणग्रामरञ्जितः । धर्म मुक्त्यादिसिद्धयर्थ ज्ञानादिगुणसंचयः ।।६।। पुनर विमानं स शिल्पिभिर्मणिकाञ्चनैः । जिनेन्द्रभवनोपेतं कारयामास चाद्भुतम् ॥७७।। तत्र त्यालये भक्त्या महापूजां जिनेशिनाम् । प्राष्टाह्निकी महाभूत्या व्यधाद्भूपोऽघशान्तये 1७८) चतुर्मुखं रथावत सर्वतोभद्रमूजितम् । कल्पवृक्षं च दीनेभ्यो दददानरवारितम् ।।७।। ... - . -... . . . .. .... . .. . . . --- -...-. -.--. करते हैं उसी प्रकार अचेतन प्रतिमाए' भी पूजा भक्ति करने वाले पुरुषों से विट तथा रोगादिक को नष्ट करती हैं ॥६६॥ इत्यादि हेतु और पृष्टान्तों के द्वारा राजा को जिन प्रतिमादिक तथा पूजादिक धर्म के विषय में शुभ निश्चय उत्पन्न कराया । पश्चात् उसी कथा के प्रसङ्ग में त्रिलोकवतों चैत्यालयों की महान आश्चर्यकारी प्राकृतियों का विस्तार से सम्यक् वर्णन करने की इच्छा करते हुए गणधर देव ने सब से पहले सूर्यविमान में स्थित विशाल जिन मन्दिर का वर्णन किया । वह मन्दिर स्वर्य तथा रत्नमय था, दिव्य था, महाविभूति से सहित था, करोड़ों सूर्य से भी अधिक तेज वाली प्रतिमाओं के समूह से युक्त था, और सूर्य देव के द्वारा नमस्कृत था ।।७०-७३।। सूर्यबिम्ब में स्थित जिन मन्दिर की असाधारण महाविभूति को सुनकर परम श्रद्धा को धारण करता हुआ राजा आनन्द अत्यधिक हर्ष से युक्त हो गया। वह दिन के प्रारम्भ और दिन के अन्त समय अपने दोनों हाथों को कुण्डलाकार कर सूर्यमण्डल में स्थित जिन प्रतिमाओं की उत्कृष्ट स्तुति करने लगा ।।७४-७५।। जिसका मुकुट भक्ति से नम्रोभूत रहता था तथा जो उन प्रतिमाओं के गुरण समूह से अनुरक्त था ऐसे उस बुद्धिमान राजा अानन्द ने ज्ञानादि गुणों के संचय से धर्म और मुक्ति प्रादि की सिद्धि के लिये कारीगरों द्वारा मरिण और सुवर्ण से सूर्य के एक ऐसे श्रद्ध त विमान का निर्माण कराया जो जिन मन्दिर से युक्त था ॥७६-७७॥ उस मन्दिर में राजा प्रानन्द ने पापों की शान्ति के लिये जिनेन्द्र भगवान की प्राष्टाह्निक महा पूजा भक्ति पूर्वक बड़े वैभव के साथ की ॥७॥ इसी प्रकार चतुर्मुख, रथावर्त, सर्वतोभद्र और अतिशय श्रेष्ठ कल्पवृक्ष पूजा भी उसने को। पूजा के समय वह दोनों के लिये मन चाहा दान देता था ।।७६।। यह देख, उसकी प्रामा
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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