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________________ * सप्तम सर्ग में तद्विलोक्य जना: सर्वे तत्प्रामाण्यात्स्वयं च तत् । स्तोतुमारेभिरे भक्त्या पुण्याय रविमण्डलम् ।।८।। प्रहो लोकाः प्रवर्तन्ते नृपाचारेण भूतले । सद्विचारं न जानन्ति कार्याकार्य शुभाशुभम् १८१॥ तदा प्रभृति लोकेऽस्मिन् बभूवार्कोपसेवनम् । मिथ्याकारं च मूढानां विवेकनिकलात्मनाम् ।।२।। अतो राजा जिनेन्द्राणां करोति विविधाचनाम् । भक्त्या सिद्धच जिनागारे विश्वाभ्युदयकारिणीम् । दानं ददाति पात्रेम्यश्वनुर्धानेक शर्मकृत् । भक्त्या च विधिना नित्यं पापहान्यमहीपतिः ।।४।। स्वर्गमुक्तिकर वारंगी सारा श्रीजिनभाषिताम् । त्रैलोक्यदीपिका नित्यं वैराग्याय शृणोति स: ।।८।। प्रणुव्रतानि सर्वाणि गुण शिक्षाव्रतानि च । प्रतीचारान्विना भूपः पालन्मुक्तये सदा ।।६।। सम्यग्दर्शनसंशुद्धि विधत्त' प्रत्यहं नृपः । मद शवाविमूढादिदोपस्त्यिवत्वाखिलान् हृदि .१८७१। धर्मोपदेशनां दत्त सभान्तःस्ट विहाय रः ! बन्ध नबादीनां मां भूमिपर्नु नः ।।८।। जिनेन्द्राणां मुनीनां केवलिना धर्मोपदेशिनाम् । विभूत्या परियारेगा कुद्यात्रा मसिद्धये । ६ ।। रिणकता से सब लोग पुण्य प्राप्ति के लिये भक्तिपूर्वक सूर्यमण्डल की स्तुति करने लगे १८०। अहो ! पृथिवी तल पर लोग राजा के आचारानुसार प्रवृत्ति करते हैं अर्थात् जैसा राजा करता है वैसा करने लगते हैं कार्य, अकार्य, शुभ, अशुभ आदि के ममीचीन विचार को नहीं जानते हैं ।।८।। उसी समय से इस लोक में विवेक रहित मूढ जीवों के बीच सूर्य को उपासना तथा उसके मिथ्या प्रकार की परम्परा चल पड़ी है ॥८२॥ तदनन्तर राजा प्रानन्द, जिन मन्दिर में सिद्धि प्राप्त करने के लिये भक्ति पूर्वक जिनेन्द्र भगवान की विविध प्रकार की पूजा करने लगा। वह पूजा समस्त अभ्युदयों को करने वाली थो॥५३॥ वह पापों की हानि के अर्थ नित्य ही पात्रों के लिये भक्ति पूर्वक यथा विधि अनेक सुखों का करने वाला चतुर्विध दान देता था ॥८४॥ जो स्वर्ग और मोक्ष को करने वाली है, सारभूत है तथा तीनों लोकों को प्रकाशित करने के लिये दीपिका स्वरूप है ऐसी श्री जिनेन्द्र प्रतिपादित वापी को वैराग्य प्राप्ति के लिये नित्य ही सुनता था ॥८॥ वह राजा मुक्ति के लिये सदा अतिचार रहित समस्त प्रावत, गुरगवत और शिक्षावतों का पालन करता था ।।६। वह प्रानन्द राजा, मद, शङ्का तथा विमूढना आदि समस्त दोषों को छोड़कर प्रतिदिन हृदय में सम्यग्दर्शन की विशुद्धता को धारण करता था ॥८७॥ कभी यह सभा के बीच बैठकर राजाओं के द्वारा स्तुत होता हुमा बन्धु, सेवक, साधारण जन तथा राजाओं के हित के लिये धर्मोपदेश देता था ।।८८॥ वह सिद्धि प्राप्त करने के लिये वैभव पूर्वक परिवार के साथ श्री जिनेन्द्र भगवान्, मुनि तथा धर्मोपदेश देने वाले केवलियों की यात्रा करता था। अर्थात् उनके दर्शन के लिये जाता था ॥८६॥ वह १. सूसिद्धये क. ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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