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________________ हाविशतितम सर्ग . [ २१ सर्ववर्ती अगन्नापी धर्मात्मा धर्मबाम्ध। धर्मभूतिर्महाधर्मकर्ता धर्मप्रदो विभुः ॥५०॥ ममूर्तीजन्यन्तपुण्यात्माप्यनन्तोऽनन्तक्तिमान् । शरण्यो विश्वलोकेशो दयामूतिर्महानती ॥५॥ वाग्मी चतुर्मुखो ब्रह्मा निःकर्मा निजितेन्द्रियः । माणिज्जितमिथ्यात्वः कर्मघ्नोऽपि यमातकः ५२ दिगम्बरो जगद्व्यापी भव्यबन्धुजंगद्गुरुः । कामदः कामहन्ता सुन्दरोडमानन्ददायकः ॥५३।। जिनेन्द्रो जिनराइ विष्णुः परमेष्ठी पुरातनः । ज्ञानज्योतिश्च पूतात्मा महान् सूक्ष्मो जगत्पतिः।५४ धारी मुनियों के स्मामी होने से निन्थराट् है २. स्व-मानादिगुणरूप धन से युक्त होने के कारण पुरून्दी हैं है. दामामाहा गाणों से परिगति होने से गणेश हैं ४. सबके स्वामी होने से विश्वनायक है ५. अपने स्वयं के पुरुषार्थ से परहन्त अवस्था को प्राप्त हुए हैं इसलिये स्वयंमू हैं . वृष-धर्म से सुशोभित होने से पृषभ हैं ७. हितोपदेश के द्वारा समस्त जीवों का पोषरण करते हैं अथवा अनन्त गुरणों को पारण करते है इसलिये भर्ता हैं. विश्व-समस्त पवार्य प्रापकी प्रास्मा में प्रतिविम्बित हैं इसलिये प्राए विश्वात्मा हैं . पाप पुनर्जन्म से रहित हैं अर्थात् अब आपको जम्म धारण नहीं करना है इसलिये अाप अपुनभंव हैं. १०. समस्त पदार्थों को देखते हैं इसलिये सर्वदर्शी हैं ११. तीनों जगत् के स्वामी है इसलिये जगन्नाथ हैं १२. धर्म हो पापको प्रात्मा है प्रतः पाप धर्मात्मा है १३. पाप सब के हितकारी है अतः धर्मवान्धव है १४. धर्म की मूर्तिस्वरूप होने से धर्ममूर्ति हैं १५. महान धर्म के करने वाले होने से महाधर्मकर्ता है १६. धर्म के देने वाले होने से धर्मप्रय है १७. विशिष्ट ऐश्वर्य से सहित होने के कारण विभु है १८. स्पर्श रस गन्ध पौर वर्णरूप मूति से रहित होने के कारण प्रमूर्त है १६. अत्यन्त पुण्यरूप होने से प्रत्यन्तपुण्यात्मा है २०. अन्त विनाश से रहित होने के कारण अनन्त हैं २१. अनन्त शक्ति-वीर्य से सहित होने से अनन्तशक्तिमान है २२. शरण देने में निपुरण होने से शरण्य हैं २३. समस्त लोक के स्वामी होने से विश्वलोकेश है २४. बयास्वरूप होने से क्यामूर्ति है २५. महावतों से युक्त होने के कारण महानती हैं २६. प्रशस्त वचनों से सहित हैं अतः वाग्मी है २७. समवसरण में चारों पोर से प्रापका मुख दिखाई देता है इसलिये भाप चतुर्मुख है २८. स्वकीय गुरणों की वृद्धि करने से ब्रह्मा हैं २६. कर्मों से रहित हैं अतः निष्कर्मा हैं ३०. पापने संपूर्णरूप से इन्द्रियों को जीत लिया है इसलिये निजितेन्द्रिय है ३१. मार-काम को जीत लेने से मारमित हैं ३२. मिथ्यात्व पर विजय प्राप्त कर लेने से मितमिथ्यात्व हैं ३३. घातिया कर्मों को नष्ट कर चुके हैं प्रतः कर्मघ्न है ३४. यम-मृत्यु का अन्त करने वाले हैं इसलिये यमान्सक हैं ३५.
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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