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________________ * अयोविंशतितम सर्ग - [ ३११ पापघ्नं सत्त्वमूलं शिवसुखअनकं स्वर्गसोपानभूत जीमारिय धरिश्या प्रगणसदनं शासन तीर्थक : १८७।। स्वायता ये इदं परिपठन्ति सुशास्त्रं पाठयन्ति सुविदो वरशिष्यान् । एनसां च विनिरोधनिर्जरा जायते बहुशुभं खलु तेषाम् ।।८८।। शृण्वते इममतीव पवित्र ग्रन्थसारमपि ये वरवुढचा । ते स्वमोहमदनारिविनाशाद्यान्ति कल्यमसमं सगुखाधिम् ।।६।। ये लिखन्ति निपुणा इममेव लेखयन्ति सुधनेन च वा ये । मानतीसुविदस्तवहान्य ते सरनस्पषिरतः श्रुतवादिम् ।। ६० ।। प्रन्बसारमिममेव मुनीन्द्राः कृरत्नदोषरहिताः श्रुतपूर्ण : शोधयन्तु निपुणा वरबुध्या पार्श्वनाथभवपतिजातम् ॥११॥ इन्द्रबमा न कोतिपूजादिसुलाभलोभान वा कवित्वाभिमानतोऽयम् । ग्रन्थः कृतः किन्तु परार्थयुद्धघा ख्यातो परेषा च हिताय नूनम् ।।१२॥ अनुपम शरण है, पाप को नष्ट करने वाला है, तस्व का मूल कारण है, मोक्ष सुख को उत्पन्न करने वाला है, स्वर्ग की सीढ़ी स्वरूप है तथा गुण समूह का घर है ऐसा तीर्थडूर का शासन पृथिवी पर निरन्तर जयवन्त रहे ॥८७।। ___ जो सम्यग्ज्ञानी जीव इस समीचीन शास्त्र को प्रच्छी तरह पढ़ते हैं तथा उत्तम शिष्यों को पढ़ाते हैं उनके निश्चय से पापों का संवर और निर्जरा तथा बहुत प्रकार का कल्याण निश्चय से होता है ॥८॥ जो मनुष्य उत्कृष्ट बुद्धि के द्वारा इस प्रस्यन्त पवित्र श्रेष्ठ प्रन्थ को सुनते हैं के अपने मोह और काम रूपी शत्रु का नाश होने से सुख रूपी सागर से सहित अनुपम नोरोगता को प्राप्त होते हैं ।।६।। शान रूपी तीर्थ को जानने पाले जो चतुर मनुष्य इस ग्रन्थ को स्वयं लिखते हैं तथा उसको हानि न हो इस उद्देश्य से उत्तम धन के द्वारा दूसरों से लिखवाते हैं वे शीघ्र ही श्रुत रूपी सागर को तिर जाते हैं ॥६॥ समस्त दोषों से रहित तथा श्रुतज्ञान से परिपूर्ण चतुर मुनिराज, पार्श्वनाथ भगवान की भव परम्परा का वर्णन करने से उत्पन्न इस श्रेष्ठ प्रन्थ का अपनी उत्कृष्ट बुद्धि से संशोधन करें॥६१ ॥ मैंने यह प्रन्थ म तो कीति पूजा प्रादि के उत्तम काम के सोम से किया है और न कविस्व प्रादि के अभिमान से ही किया है किन्तु परार्थ युजि से
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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