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________________ * अष्टम सर्ग * [ १०३ स्रग्धरा पापनां धर्मवानि शिवसुख जननी स्वर्गसोपानमालां. विश्वाच्या विश्ववन्या निखिलगुणनिधि क्लेशसंतापदूराम् । प्रचभ्रागारागला सच्छ त सकलकर कोपशत्रु प्रहत्य. क्षान्ति त्यक्तोपमा नित्यमपि सुकृतिनो यस्नत: संभजध्वम् ।। १२१।। मालिनी इह निरुपमदेवो विश्वविघ्नाद्रिवमः, प्रकटितनिजवीर्यः शत्रुघोरोपसर्गात् । प्रमलगुणनिधान: पार्श्वनाथो ममास्तु. दुरित चयबिहान्य संस्तुतस्तद्गुणाय ।। १२२।। इति भट्टामा पकलकोतिविचिते पार्श्वनाथ चार प्रानन्दमुनिगम्योत्पतितपोवर्णनो नामाष्टमः सर्गः ।।८।। तथा निरुपम है ऐसी क्षमा को हे पुण्यशाली जन हो ! क्रोधरूपी शत्रु को नष्ट कर यत्नपूर्वक उपासना करो ॥१२१।। जो समस्त विघ्नरूपी पर्वत को नष्ट करने के लिये वन के समान हैं, शत्रुकृत घोर उपसग से जिन्होंने प्रात्मबल को प्रकट किया है, तथा जो निर्मल गुरणों के भण्डार हैं ऐसे अनुपम देव श्री पार्श्वनाथ भगवान मेरे द्वारा संस्तुत होते हुए मेरे पाप समूह को नष्ट करने तथा अपने उन गुणों को प्रदान करने के लिये हों ।।१२२।। इस प्रकार भट्टारक मकल कीर्ति द्वारा विचित पाश्वनाथ चरित में प्रानन्द मुनि के बराग्य की उत्पनि तथा तप का वर्णन करने वाला अष्टम सर्ग ममाप्त हमा८॥
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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