SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१८ * श्री पारवनाथ चरित - एषणाशुद्धिरिस्थतान्पुण्योपार्जनकारणान् । प्रकारानव तत्काले स्वीचकार महीपतिः ।।६।। सतोऽतिमधुरं हृद्यं तपोज्ञानादिवर्धकम् । प्रासुकं. सरस क्षुत्त इनाशनं दोषदूरगम् ।।१०।। 'कृतादिवजितं भक्त्या परमानं जिनेशिने । त्रिशुद्धया मुक्तये तस्मै ददो सुविधिना नृपः ।।११।। तत्कालाजितपुण्येन करमुक्ता दिवौकसाम् । महती रत्नवृष्टिः खादपप्ततेजसाकुला ।।१२।। महादानफलं लोके व्यक्तं वा कुर्वती सताम् । पत्र स्वर्भोगभूमुक्त्यादौ परत्र नृपालये ॥१३॥ सदापप्तदिवो वृष्टिमुक्ता देवकरैः शुभा । कल्पथाखिजपुष्पाणां सुगन्धीकृतभूतला ॥१४।। मन्द्रं सुरानका देवकरस्पर्शात्प्रदम्बनुः । बहवो घोषयन्तोऽत्रेव दातुः परम यशः ।।१५।। संचचार मरुच्छीत: सुगन्धि: स्पर्शनप्रिय: । देवोपनीत एवाहो गन्धोदककणान् किरन् ॥१॥ पाहो परमपात्रोऽयं जिनेणो दाततारकः । धन्योऽयं जगता मान्यो दाता तद्वत्तस क्ष्यकृत् १५॥ अहो दानं पर चेदं धर्मदं दातृपात्रयोः । दानतोषात्सुराः क्षेत्रेऽत्युच्चं चक्रुमहावनिम् ।१८।। पुद्धि और प्राहार शुद्धि ये नौ पुण्योपार्जन के कारण हैं। राजा ने उस समय उपयुक्त नौ कारणों को स्वीकृत किया ।।। तदनन्तर राजा ने मुक्ति प्राप्ति के हेतु उन जिनराज के लिये मन वचन काय की शुद्धिपूर्वक भक्ति से अत्यन्त मधुर, रुचिकर, तप तथा ज्ञानादि की वृद्धि करने वाला, प्रासुक, सरस, क्षुधा तृषा को नष्ट करने वाला और कृत कारितावि दोषों से रहित परमान-खीर का प्राहार विधिपूर्वक दिया ॥१०-११॥ तत्काल उपाणित पुण्य के द्वारा देवों के हाथ से छोड़ी हुई सेजपूर्ण बहुतभारी रत्नवृष्टि प्राकास से पढ़ने लगी ॥१२॥ राजभवन में पड़ती हुई रत्तवृष्टि ऐसी जान पड़तो थी मानो लोक में सत्पुरुषों के लिये दान का महाफल प्रकट करतो हुई यह बता रही हो कि दान से इस भव में तथा स्वर्ग, भोगभूमि और मोक्ष प्रादि में परम सुख की प्राप्ति होती है ॥१३॥ उस समय पृथिवी को सुगन्धित करने वाली, देवों के हाथ से छोड़ी कल्पवृक्ष के पुष्पों की वर्षा पाकास से पड़ रही थी ॥१४॥ देवों के हाथ के स्पर्श से वेबों के बहुत भारी नगाड़े गम्भीर सम्म कर रहे थे और वे ऐसे जान पड़ते थे मानों इस लोक में दाता के परम यश की घोषणा हो कर रहे हो ॥१५॥ अहो ! उस समय शीतल, सुगन्धित स्पर्शनेन्द्रिय को प्रिय, देवोपनीत वायु सुगन्धित जल के कणों को विखेरती हुई सब ओर चल रही थी ॥१६॥ अहो ! दाताओं को तारने वाले ये तीर्थङ्कर जिनेन्द्र परमपात्र हैं और उनके चारित्र का साक्षात करने वाला, जगन्मान्य यह वाता भी ज्यभाप है ॥१७॥ अहो । दाता और पान-दोनों के लिये धर्म को देने वाला परम दान है, इस प्रकार वान के संतोष से उस क्षेत्र में सेव लोग उच्चस्वर से महान शम्ब कर रहे थे। भावार्थ-उस समय पात्रवान के प्रभाव से देखों ने १. उहिष्टादिदोषरहितं . तमापतरियो स्व. प.।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy