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________________ ! 1 -7 * सप्तदश सर्ग [ २१७ सप्तदशः सर्गः भोग | ङ्गभववस्तुषु ||२| सुखदुःख समाशयः ॥३॥ दीक्षान्तं जगद्वन्द्यं त्रिश्वार्थ्यं त्रिजगद्गुरुम् । त्यक्ताङ्ग' शिरसा वन्दे पार्श्वनाथं यमाप्तये ||१|| अथ योगं विमुच्याशु स्वय्र्यापश्रविलोचनः । भावयंस्त्रिक संवेगं निर्धनोऽयं धनेशोऽयं मनागित्यविचारयन् । सर्वेन्द्रियजयोद्युक्तः दानिनां परमं तोषं कुर्वस्तीर्थाधिराट् परम् । गुल्मखेटपुरं कार्यस्थित्यर्थं प्राविशच्चिदे || ४ तत्र मत्याखभूपाल: श्यामवर्णो गुणोज्ज्वलः । निधानमिव तं दृष्ट्वा परं पात्रं जगद्गुरुम् 11 ५ 11 प्राप्यानन्दं मुहुर्नत्वा शिरसा तत्पदाम्बुजी । तिष्ठ तिष्ठेति संप्रोक्त्वा स्थापयामास तत्क्षणम् । श्रद्धा शक्तिनिरीहत्वं भक्तिर्ज्ञानं दया क्षमा । एतान्सप्तगुणान्प्राप दानकाले स भूपतिः ||७|| प्रतिग्रहस्तयोच्चस्थानं पादक्षालनार्चनम् । प्रणामं कायवा चित्तशुद्धीनां त्रितयं परम् ||८|| सप्तदश सर्ग जो दीक्षा को प्राप्त हैं, जगत् के द्वारा बन्दनीय हैं। सबके द्वारा पूज्य हैं, तीन जगत् के गुरु हैं, तथा शरीर से ममत्व छोड़कर कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित हैं उन पार्श्वनाथ भगबान् को में सयम को प्राप्ति के लिये शिर से नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥ प्रथानन्तर तीन दिन का योग समाप्त होने पर जो शीघ्र ही अपने मार्ग का प्रवलोकन करते हुए ईर्या समिति से चल रहे हैं, जो भोम शरीर और संसार की वस्तुओं में त्रिविध संवेग की भावना कर रहे हैं, यह निर्धन है यह धनाढय है ऐसा रञ्चमात्र भी विचार नहीं कर रहे हैं, समस्त इन्द्रियों के जीतने में उद्यत हैं, सुख और दुःख में जिनका साम्यभाव हैं तथा जो दानियों को परम संतोष उत्पन्न कर रहे हैं ऐसे तीर्थराज - पार्श्वनाथ तीर्थंकर ज्ञानादि गुणों की साधना के निमित्त शरीर की स्थिरता के लिये गुरुमखेट नगर में प्रविष्ट हुए ।। २-४ ।। यहाँ शरीर से श्याम किन्तु गुणों से उज्ज्वल मत्याल नामक राजा ने विधान के समान उत्तम पात्रस्वरूप जगद्गुरु को देखकर परम हर्ष का प्रनुभव किया। उसने उनके चरणकमलों में शिर झुका कर नमस्कार किया और 'तिष्ठ तिष्ठ' कहकर उन्हें तत्काल पड़गाह लिया ।। ५-६ ।। उस राजा ने वानकाल में होने वाले श्रद्धा, शक्ति, निरीहता, भक्ति, ज्ञान, दया और क्षमा इन सात गुणों को प्राप्त कर लिया || ७ प्रतिग्रह-पडगाहना, उच्चस्थान, पादप्रक्षालन, पूजन, प्ररणाम, कायशुद्धि, वचन शुद्धि, मनः १. स्वक्तार ग० २. मन्यख ग० ३. [ संप्रोच्य ]
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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