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* श्री पार्श्वनाथ परित.
मालिको इति विगतविकारो ध्यानलीनोऽघहन्ता निखिलगुणसमुद्रो दीक्षितो विश्वनाथः । रहितसकलदोषः पूजितः संस्तुतश्च त्रिभुवनपतिभव्यर्य: स नोऽव्याद्भवाम्धेः' ||१६||
वसम्ततिलका बाल्येऽपि योऽत्र मदनारिनृपं विपित्य वैराग्यशस्त्रसबलः 'खभटः सहाशु । अङ्गीचकार परमं तप प्रास्मशुद्धच दद्यात् स नो जिनपतिः सकलां स्वभूतिम् ।।१५।।
स्रग्धरा विश्वार्यो विश्ववन्धो निखिलगुणनिधिः सर्वदोषातिदूरः
कर्मध्नो मोक्षहेतुविजितमदनखो दीक्षितो शाननेत्रः । पार्माधिधर्मकर्तारिखलदुरितहरः संस्तुतो वन्दितश्च
__ मुर्ना नित्यं मया मे भवतु भवभवे संपमाप्त्य कुमारः ।।१५१॥ इति श्री भट्टारक सकलकीगिनि निजी पर्यायरितो दीक्षावर्गानो नाम षोडशः सर्गः ।।१६।।
इस प्रकार जो विकार से रहित हैं, ध्यान में लीन हैं, पापों का नाश करने वाले हैं, समस्त गुणों के सागर हैं, दीक्षित हैं, सबके स्वामी हैं, सकल दोषों से रहित हैं, और तीन लोक के पतियों द्वारा पूजित तथा अच्छी तरह स्तुत हैं वे पार्श्वनाथ भगवान संसार सागर से हमारी रक्षा करें॥१४६।। वैराग्यरूपी शस्त्र से सबल होकर जिन्होंने यहां बाल्यावस्था में भी इन्द्रियरूपी मुभटों के साथ शीघ्र हो कामरूपी राजा को जीतकर प्रात्मशुद्धि के लिये उत्कृष्ट तप स्वीकृत किया था वे पाश्य जिनेन्द्र हम सबके लिये अपनी समस्त विभूति प्रदान करें प्रर्थात् हम लोगों को भी अपने ही समान चौतराग तथा सर्वज्ञ बनावें ॥१५०।।
जो सबके द्वारा पूज्य हैं, सबके द्वारा वन्दनीय है, ममस्त गुणों के भाण्डार है, सर्व दोषों से अत्यन्त दूर हैं, कर्मों का नाश करने वाले हैं. मोक्ष के कारण हैं, जिन्होंने काम तथा इन्द्रियों को जीत लिया है, जो दीक्षा से युक्त हैं, ज्ञान नेत्र के धारक हैं, सुख के सागर हैं, धर्म के कर्ता हैं, समस्त पापों को हरने वाले हैं, मेरे द्वारा संस्तुत हैं और मैं नित्य ही मस्तक से जिनको बन्दना करता हूँ वे पाशवकुमार भय भव में मुझे संयम की प्राप्ति के लिये हों ।।१५।।
इस प्रकार श्री भट्टारक सकलकीति द्वारा विरचित श्री पाश्र्धनाथचरित में दीक्षा का वणन करने वाला सोलहवां सगं समाप्त हया ।।१६।। १. स्याह भयो ।